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Wednesday, December 15, 2021

अरहर की उन्नतशील खेती

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1. खेत का चुनाव - बलुई व दोमट भूमि उपयुक्त । उचित जल निकास तथा हल्के बालू खेत सर्वोत्तम।

2. खेत की तैयारी - पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से । उसके बाद 2-3 जुताई देशी हल से।

3. उन्नतशील प्रजातियाँ-

प्रजाति

बोने का उपयुक्त समय


पकने की अवधि (दिन)

उपज


अगेती प्रजातियाँ

पारस

जून प्रथम सप्ताह 130-140 18-20


यू.पी. ए. एस.-120 तदैव

130-135 16-20


पूसा 992

तदैव

150-160 16-20


टा-21

अप्रैल/जून

160-170 16-20


देर से पकने वाली प्रजातियाँ


बहार

जुलाई 250-260 25-30


अमर

जुलाई 260-270 25-30


नरेन्द्र अरहर-1

जुलाई 260-270 25-30


आजाद

जुलाई 260-270 25-30


पूसा-9

जुलाई 260-270 25-30


पी.डी.ए.-11

सित. का प्र. पखवारा 225-240

18-20


मालवीय-विकास जुलाई

250-270 25-30


मालवीय चमत्कार

(एम.ए.एल-13)

जुलाई

230-250 30-32


नरेन्द्र अरहर-2

जुलाई

240-245 30-32


4. बुवाई का समय-

देर से पकने वाली प्रजातियाँ-जुलाई माह । टा-21 की अप्रैल प्रथम पखवारा

शीघ पकने वाली प्रजातियाँ- जून मध्य तक (अधिक उपज हेतु ग्रीष्म कालीनमूंग के साथ सहफसली)

5.बीज उपचार-

- सर्वप्रथम 1 किग्रा.बीज को 2 ग्राम थीरम, 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम अथवा 4 ग्रामट्राइकोडरमा +1 ग्राम कारवोक्सिन से उपचारित करें।

- बोने से पहले बीज को अरहर के विशिष्ट राइजोबियम कल्चर से उपचारित करें।एक पैकेट 10 किग्रा.बीज हेतु पर्याप्त होता है।

- जहाँ अरहर प्रथम बार बो रहे हो वहाँ कल्चर से उपचारित अवश्य करें।

6. बीज की मात्रा तथा बुवाई विधि-

- बुवाई हल के पीछे कुडों में करें |

-प्रजाति तथा मौसम के अनुसार बीज की मात्रा तथा बुवाई की दूरी निम्न प्रकार रखें:-

-बुवाई के 20-25 दिन बाद पौधे की दूरी, सघन पौधों को निकाल कर (थिनिंग)निश्चित कर दें।

-रिज विधि से बोने पर उपज अधिक होती है।

प्रजाति

बुवाई का समय

बीज की दर किग्रा./हे.

बुआई की दूरी (सेमी)


पंक्ति से पंक्ति पौधे से पौधा

टा-21

(शुद्ध फसल) जून प्र. पखवारा 12-15

60

20


अप्रैल में

मूंग के साथ अप्रैल प्र.पखवारा

12-15

75

20


यू.पी.ए.एस-120

(शुद्ध फसल) मध्य जून

15-20 45-50 15


आईसीपीएल-151 मध्य जून 20-25 50 15

नरेन्द्र-1 जुल.प्र सप्ताह 15-20 60 20

अमर तदैव 15-20 60 20

बहार तदैव 15-20 60 20

आजाद तदैव 15 90 30

मालवीय-13

(चमत्कार) तदैव 15 90 30


पूर्वी उ.प्र. में बाढ़ या लगातार वर्षा के कारण बुवाई में विलम्ब की दशा में सितम्बर के प्रथम पखवारे मे शुद्ध फसल के रुप में मेंडो पर हो सकते हैं परन्तु कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. एवं बीज की मात्रा 20-25 किग्रा./हे) कीदरसे प्रयोग करें।

7. उर्वरकों का प्रयोग-मृदा परीक्षण के आधार पर जथवा 10-15 किग्रा. नत्रजन 40-45 किग्रा. फास्फोरस तथा 20 किग्रा. सल्करहे0 की आवश्यकता होती है। उर्वरक नाईया चोंगा से बीजके नीचे दें। 

सितम्बर में बुवाई हेतु 30-40 किग्रा./हे0 नत्रजन का प्रयोग करें।

8.. सिंचाई - अरहर टा-21, यू.पी.ए.एस.. 120 तथा पूसा-992 को पलेवा करके तथा अन्य प्रजातियों की वर्षाकाल में पर्याप्त नमी होने पर बोयें। कम नमी होने पर एक सिंचाई फलियाँ बनने के समय अक्टूबर में करो। देर से पकने वाली प्रजातियों में पाले से बचाव हेतु दिसम्बर जनवरी माह में सिंचाई करें।

9. निकाई-गुवाई - बुवाई के एक माह के अन्दर निराई करें। दूसरी निवाई पहली के 20 दिन बाद । रसायनिक खरपतवार नियंत्रण निम्नानुसार:

क्र. शाकनाशी का नाम मात्रा प्रति है. (व्यापारिक पदार्य)

1. एलाक्लोर 50 डब्लू.पी.लासो

(बुवाई के दो दिनों में) 4.0 से52 किग्रा.

2. फ्लूक्लोरेलिन 45 ई.सी. बेसालिन

(बुवाई के तुरत पहले सो करने के बाद

मृदा में मिलाकर) 1500-2000 मिली


3.पेडीमिथलीन 30ई.सी. स्टाम्प

(बुवाई के तुरन्त बाद) 2500-3000 मिली


4. आक्सीफ्ल्वोत्केन 235 ई.सी. गोल जारगोन

(बुवाई के तुरन्त बाद) 400-500 मिली


5. क्विजैलोफास 5 ई.सी. टर्गासुपर

(बुवाई के 15-20 दिन बाद)

(केवल घास कुल के खरपतवारों

का नियन्त्रण) 800-1000 मिली


नोट : क्रम 1 से 4 पर अंकित शाकनाशियों द्वारा घासकुल एवं चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों का नियंत्रण हो जाता है।

10. फसल सुरक्षा-कीट-

1. पत्ती लपेटक कीट-

पहचान - सूड़ियाँ हल्के पीले रंग की होती हैं, जो पौधे की चोटी (ऊपर की) पत्तियों को लपेट कर सफेद जाला बुनकर उसी में छिपकर , पत्तियों को खाती है। अगेती फसल में यह फूल एवं फलियों को नुकसान पहुंचाती है।

2. अरहर की फली की मक्खी : आर्थिक क्षति स्तर - 5 प्रतिशत प्रकोपित फली पहचान एवं हानि की प्रकृति- यह छोटी चमकदार काले रंग की घरेलू मक्खी की तरह परन्तु आकार में छोटी मक्खी होती है। इसकी मादा फलियों

में बन रहे दानों के पास फलियों के अपने अण्डरोपक की सहायता से अण्डे देती है जिससे निकलने वाली गिडारे फली के अन्दर बन रहे दाने को खाकर नुकसान पहुंचाती है।

3. चने का फली बेधक कीट : आर्थिक क्षति स्तर 2-3 अण्डे या 2-3 नवजात सूंडी या एक पूर्ण विकसित सूंडी प्रति पौधा या 5 से 6 पतंगे प्रति गन्धपास प्रति रात्रि लगातार तीन रात्रि तक 

पहचान एवं हानि की प्रकृति- प्रौढ़ पतंगा पीले बादामी रंग का होता है । अगली जोड़ी पंख पीले भूरे रंग के होते हैं तथा पंख के मध्य में एक काला निशान होता है। पिछले पंख कुछ चौड़े मटमैले सफेद से हल्के रंग के होते हैं तथा किनारे पर काली पट्टी होती है । सूंडिया हरे पीले या भूरे रंग की होती हैं तथा पार्श्व में दोनों तरफ मटमैली सफेद रंग की धारी पायी जाती है । इसकी गिडारे फलियों के अन्दर घुसकर दानों को खाती है।

क्षतिग्रस्त फलियों में छिद्र दिखाई देते हैं।

3. पिच्छकी शलभ (प्यूम माथ) : आर्थिक क्षति स्तर प्रतिशत प्रकोपित फली पहचान एवं हानि की प्रकृति- प्रौढ़ पतंगा आकार में छोटे एवं हल्का पाण्डु वर्गीय होता है, जिसके अगले पंख पिच्छकी होते हैं तथा प्रत्येक पंखों पर दो-दो गहरे धब्बे पाये जाते हैं । पिछले जोड़ी पंखों पर बीच में काटे जैसे शुल्क पाये जाते हैं । कीट की सूड़ियाँ फलियों को पहले ऊपर की सतह से खुरचकर खाती है फिर बाद में छेदकर अन्दर घुस जाती है तथा दानों में छेद बनाकर खाती हैं।

4. फलीवेधक (इटलो जिकनेला) : आर्थिक क्षति स्तर प्रतिशत प्रकोपित फली। 

पहचान एवं हानि की प्रकृति-प्रौढ़ कीट भूरे रंग का चोंच युक्त मुखाग करा होता है । इसके ऊपरी पंख के बीच के किनारों पर पीले सफेद रंग का बैण्ड होता है । पिछले पंख के किनारों पर लाइन पायी जाती है । कीट की सूड़ियाँ फूलों,नई फलियों तथा फलियों में बन रहे बीजों को खाकर नुकसान पहुंचाती है। प्रकोपित कलियाँ रगहीन तथा लिसलिसी हो जाती है जिससे दुर्गन्ध आती है।

5. धर्च दार फलीबेधक (मौरुका टेस्टुलेलिस) : आर्थिक क्षति स्तर 5 प्रतिशत प्रकोपित फली 

पहचान एवं हानि की प्रकृति - इस कीट का शलम भूरे रंग का होता है । इसके अगले पंखो पर दो सफेद धब्बे होते हैं एवं पंख के किनारे पर छोटे-छोटे काले धब्बे एवं लहरियादार धारी होती है । इसके पिछले पंख कुछ कुछ पीले सफेद रंग के होते हैं । और इनके किनारे पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक लहरियादार धब्बे फैले होते हैं । कीट की सूड़ियाँ हरे सफेद रंग की तथा भूरे सिर वाली लगमग दो सेमी लम्बी होती है तथा इनके प्रत्येक खण्ड मे छोटे-छोटे पीले एवं हरे भूरे रंग के रोएं पाये जाते हैं । सूडियां कलिकाओं, फूलों तथा फलियों को जाले से बाँधकर उसमें छेद बनाकर बीज को खा जाती है।

6. अरहर का फलीबेधक (नानागुना ब्रेबियसकुला) : 

पहचान एवं हानि की प्रकृति- नवजात सूडी पीले सफेद एवं गहरे भूरे रंग के सिर वाली होती है । इसकी 6 अवस्थाएं पायी जाती है । तथा इन अवस्थाओं में इनका रंग परिवर्तनीय होता है । पूर्ण विकसित सूड़ी 14 से 17 मिमी. लम्बी हल्के पीले, हल्के भूरे अथवा हल्के सफेद रंग तथा लाल भूरे सिर एवं पार्श्व में पटियायुक्त होती है । ये फलियों को जाले में बांधकर छेइ करती हैं और दानों को खाती हैं।

7. नील तितली (लैम्पीडस प्रजातियाँ)

पहचान एवं हानि की प्रकृति- पूर्ण विकसित सूंडी पीली हरी, लाल तथा हल्के हरे रंग की होती है तथा इनके शरीर की निचली सतह छोटे-छोटे बालों से ढकी होती है । प्रौढ़ तितली आसमानी नीले रंग की होती है । इसकी सूड़ियाँ फलियों को छेदकर उनके दानों को नुकसान पहुंचाती हैं ।

8. माहू (एफिस केक्सीवोरा) :

पहचान एवं हानि की प्रकृति- यह एफिड गहरे कत्थई अथवा काले रंग की बिना पंख अथवा पंख वाली होती है । एक मादा 8-30 बच्चों को जन्म देती है तथा इनका जीवनकाल 10-12 दिन का होता है । इसके शिशु एवं प्रौढ पौधे के विभिन्न भागों विशेषकर फूलों एवं फलियों के रस चूसकर हानि करते हैं।

9. अरहर फली बग:

पहचान एवं हानि की प्रकृति - प्रौढ़ बग लगभग दो सेन्टीमीटर लम्बा कुछ हरे भूरे रंग का होता है । इसके शीर्ष पर शूल युक्त, प्रवक्ष पृष्ठक पाया जाता है । उदर प्रोथ पर मजबूत काँटे होते हैं । इसके शिशु एवं प्रौढ़ अरहर के तने, पत्तियों एवं पुष्पों एवं फलियों से रस चूसकर हानि पहुंचाते हैं | प्रकोपित फलियों पर हल्के रंग के धब्बे बन जाते हैं तथा अत्याधिक प्रकोप होने पर फलियाँ सिकुड़ जाती हैं एवं दाने छोटे रह जाते हैं।

कम अवधि के अरहर की फसल में एकीकृत कीट प्रबन्धन-

1. अरहर के खेत में चिडियों के बैठने के लिये बांस की लकड़ी का 'टी' आकार की 10 खपच्ची/हे0 के हिसाब से गाड़ दें।

2. जब शत प्रतिशत पौधों में फूल आ गये हों और फली बनना शुरु हो गयी हो उस समय इन्डोसल्फान 0.07% घोल का छिड़काव करें।

3. प्रथम छिडकाव के 15 दिन पश्चात एच.एप.पी.वी. का 500 एल. ई./हे.के हिसाब से छिड़काव करें।

मध्यम एवं लम्बी अवधि की अरहर की फसल में एकीकृत कीट प्रबन्धन-

1. जब शत प्रतिशत पौधों में फूल आ गये हों और फली बनना शुरु हो गया हों उस समय मोनोक्रोटोफास 0.045 घोल का छिड़काव करें।

2. प्रथम छिड़काव के 10-15 दिन बाद डाईमेथोएट 0.03% घोल का छिड़काव करें।

3. द्वितीय छिड़काव के 10-15 दिन पश्चात् आवश्यकतानुसार 5% निबोली के अर्क या नीम के किसी प्रभावी कीटनाशक का छिड़काव करें।

अरहर की फसल पर कीट नियंत्रण

(अ)कर्षण नियंत्रण :

1. शीघ्र पकने वाली प्रजातियों क्रमशःटा-21यू.पी.ए.एस.-120 को फली बेधकों से देर से पकने वाली प्रजातियों (टी-7 व टी-17) में कम हानि होती है। उत्तर भारत में मध्यम समय में पकने वाली प्रजाति जैसे बहार, चना फली बेधक के प्रकोप से बच जाती है।

2. गर्मियों में अरहर की पेड़ी या इधर-उधर उगे पौधों को नष्ट के देना चाहिये।

3. कफोलो भृग को हाथ से चुनकर तथा फली बग को झाड़कर इकट्ठा करके नष्ट कर दें।

(ब) रासायनिक नियंत्रण :

1. फली बेधक का नियंत्रण करने के लिये इन्डोसल्फान (0.07 प्रतिशत) या डाइमेथोएट (0.03 प्रतिशत) का प्रयोग करना चाहिये। जहां फली बेधक मक्खी समस्या हो, डाईमेथोएट को प्राथमिकता दे।.

मुख्य बिन्दु-

1. बीज शोधन अवश्य करें।

2. सिंगल सुपरफास्ट का (फास्फोरस एवं गन्धक हेतु) प्रयोग करें।

3. समय से बुवाई करें।

4. फली वेधक/फल मक्खी का नियंत्रण जरुर करें।

5. बिरलीकरण अवश्य करें।

6. मेंड़ों पर बुवाई करें।

7. फूल आते समय मोनोक्रोटोफास का एक छिड़काव करें। 

Sabha up govt agriculture 


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Thursday, December 09, 2021

तिल का महत्व

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सर्दियों में शरीर को गर्म रखने के लिए हम कई चीजों का सेवन करते हैं ऐसे में तिल और गुड़ का सेवन करना सेहतमंद साबित होता है। ठंड के मौसम में तिल और गुड़ के बने लड्डू, तिल-गुड़ की चिक्की, गजक, रेवड़ी आदि अनेक तरह की डिश मार्केट में मिल जाती हैं।सर्दी में मिलने वाली इन चीजों के नाम अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग होते हैं। लेकिन इनका स्वाद दिल छू लेने वाला होता है।तिल और गुड़ के लड्डू भी बनाए जा सकते हैं। जिनका सेवन कर आप अनेक बीमारियों से निजात पा सकते हैं।
आयुर्वेद के अनुसार, सर्दियों में हमारे शरीर में वात का प्रभाव काफी तेजी से बढ़ जाता है। इसके कारण जोड़ों में दर्द, मांसपेशियों में जकड़न होती है. इस समय आप तिल और गुड़ का सेवन करते हैं, तो यह बीमारियां कंट्रोल में रहती हैं. तिल तीन प्रकार के होते हैं–काले, सफेद और लाल. यदि आप तिल और गुड़ से बने लड्डू का सेवन करेंगे तो यह आपके शरीर में आयरन की भी आपूर्ति करेगा।
तिल में कई प्रकार के प्रोटीन, कैल्शियम, बी कंपलेक्स, पोटैशियम आदि अनेक पोषक तत्त्व पाए जाते है। तिल का सेवन करने से तनाव दूर रहता और मानसिक दुर्बलता कम होती है।और गुड़ में ढेर सारा आयरन, विटामिन और मिनरल्स पाया जाता है, इन दोनों का एक साथ सेवन करने से कई बीमारियों से लड़ने की ताकत मिलती हैं।
तिल और गुड़ के सेवन का फायदे–
1. डायबिटीज के मरीजों के लिए तिल और गुड़ का एक साथ सेवन करना फायदेमंद होता है। यह शुगर की मात्रा को कंट्रोल में रखता है।शुगर के मरीज तिल और गुड़ का सीमित मात्रा में सेवन कर सकते हैं।
2. तिल और गुड़ का सेवन एक साथ करने से कोलेस्ट्रॉल को कम किया जा सकता है।इसका इस्तेमाल काफी हद तक वजन कम करने में भी किया जाता हैं।
3. गुड में आयरन प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। ऐसे में तिल के साथ इसका सेवन करने से शरीर में खून की कमी को पूरा करता है।
4. इसमें विटामिन बी और विटामिन ई पाया जाता है, जो त्वचा को जवां और चमकदार बनाता है।
5. सर्दी–जुकाम और असाइनीस की समस्या को दूर करने के लिए तिल और गुड़ के लड्डू का सेवन बेहद फायदेमंद होता है।
6. तिल में मौजूद कैल्शियम हड्डी को मजबूत बनाता है।और सिरदर्द भगाता है।
7. तिल में प्रोटीन, कैल्शियम और बी कांपलेक्स बहुत अधिक मात्रा में पाया जाता है।प्रतिदिन 50 ग्राम तिल खाने से कैल्शियम की आवश्यकता पूरी होती है। तिल के सेवन से मानसिक दुर्बलता और तनाव दूर होता हैं। 8. तिल का नियमित सेवन करने से ब्लड प्रेशर कम होता है। यह शरीर में सोडियम की मात्रा को भी कम करने में मदद करता हैं।
9. गठिया रोगियों के लिए तिल और गुड़ से बने लड्डू का सेवन करना लाभकारी होता है।तिल खाने से पैरों की सूजन आदि कम होती हैं।
10. तिल और गुड़ की तासीर गर्म होती है ठंड के मौसम में इसका सेवन शरीर को अंदर से गर्म रखता है और सर्दी–जुकाम और कड़ाके की ठंड से बचाव करता हैं।

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Wednesday, December 08, 2021

अमरूद की बागवानी एवं उन्नत खेती

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समी प्रकार की भूमि पर पैदा होने वाला कठोर प्रवृत्ति का वृक्ष अमरूदविटामिन सी एवं अन्य पोषक तत्वों से भरपूर है।
प्रमुख किस्में :इलाहावादी राफेदा, लखनऊ 49, श्वेता, ललित, एपलकलर (सुखा), रेड फ्लेस्ड ।
जलवायु एवं भूमि :गर्म एवं शुष्क जलवायु उपयुक्त । पाला वाले क्षेत्रअनुपयुक्त । उपजाऊ गहरी बलुई दोमट मिट्टी जिसका पी. एच. मान650 के बीच हो तथा जल निकास अच्छा हो सर्वोत्तम होती है।
सामान्यत:हर प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है।
खाद एवं उर्वरक :खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग निम्नलिखित दर से उम्रके अनुसार प्रति वृक्ष प्रति वर्ष करना चाहिए–
आयु (वर्ष) गोबर की खाद (किग्रा) नाईट्रोजन (ग्राम) फॉस्फोरस (ग्राम) पोटाश (ग्राम)
1 10 60 30 60
2 20 120 60 120
3 30 180 90 180
4. 40 240 120 240
5 50 300 150 300
6 या अधिक 60 360 180 360

गोबर की खाद जुलाई में, फॉस्फेरस व पोटाश की पूरी मात्रा फरवरी में तथानाईट्रोजन की आधी मात्रा फरवरी तथा आधी अक्टूबर में देना चाहिए।
रोपण सामग्री का स्त्रोत : किसी विश्वसनीय पंजीकृत पौधशाला से स्वस्थएवं उपयुक्त कलमी पौधे जो भेंटकलम्, पैचबडिंग, स्टूलिंग अथवा क्लेफ्टचश्माविधि से तैयार किये गये हों, लेकर रोपण करना चाहिए । रोपण का
उपयुक्त समय जुलाई - अगस्त है सिंचाई सुविधा होने पर फरवरी – मार्चमें भी रोपण किया जा सकता है | रोपण से एक माह पूर्व 6x6 मीटर कीदूरी पर 60x60x60 सेमी. आकार के गडढ़े खोदकर उसमें 20 - 25 किग्रासड़ी गोबर की खाद गड्ढ़े के ऊपरी सतह की मिट्टी मे 200 ग्राम नीम कीखली तथा 50 ग्राम मिथाइल पैराथियान धूल प्रति गडढ़े के हिसाब से भरकरगडढ़ा तैयार कर लेते हैं तथा वर्षा होने पर इसी में पौध रोपण करते हैं । वर्षारोपण होते समय रोपण न करें।
सिंचाई निराई-गुडाई :पौधे लगाने के वर्ष में शरद ऋतु में 15 - 20 दिन तथामेंगर्मी में प्रति सप्ताह सिंचाई थाला बनाकर करना चाहिए । अमरूद के तने केपास काफी संख्या में सकर्स निकलते हैं | इनको निराई-गुडाई कर निकालतेरहना चाहिए।
कटाई - छंटाई :पौधे को साधने तथा उचित ढाँचा बनवाने के लिए मई-जूनमाह में कटाई - छंटाई संस्तुति के अनुसार करनी चाहिए । अमरूद में फसलफलन नियन्त्रण हेतु आवश्यक शस्य क्रियाओं को अपनाना चाहिए ।
रोग एवं कीट नियन्त्रण :
प्रमुख रोग :फ्रूटराट, एन्थोकनोज, स्कैब, तना एवं फल कैंकर, उकठा व्याधि ।
रोक थाम :मैंकोजेब (2.5 ग्राम/लीटर पानी) कापर आक्सीक्लोराईड (3 ग्राम/लीटर पानी) का छिडकाव करें । उकठा रोग के रोकथाम हेतु 8 पी. एच. मानसे अधिक वालीमृदामें अमरूद का बाग न लगायें | 20 30 ग्राम कार्बेन्डाजिम10 - 15 लीटर पानी में घोलकर जड़ों में मार्च, जून, सितम्बर व दिसम्बर में डालें।गोबर की खाद में ट्राईकोडर्मी एवं एसपरजिलस कल्चर मिलाकर डालें ।
प्रमुख कीट : फल मक्खी, छाल खाने वाली झल्ली, फल वेधक, मिलीबग ।
रोकथाम :प्रभावित फलों को एकत्र कर नष्ट कर दें । फल मक्खी हेतु अगस्तसितम्बर में वाग की जुताई कर चौढ़े मुँह के वर्तन में 1 मिली. मिथाइल यूजीनाल+ 2 मिली. मैलाथियान प्रति लीटर पानी मे मिलाकर घोल फल आने कीअवस्था में जगह-जगह बागों में लटका दें । कीटों के रोकथाम हेतु पतला तारडालकर छाल में बनी सुरंग को साफ कर मिट्टी का तेल या डाईक्लोरोवास सेभीगा रूई का फाहा सुरंगों में डालकर चिकनी मिट्टी से सुरंगो का बन्द करदें । फल बेधक कीट के रोकथाम हेतु डाईक्लोरोवास 1.4 मिली. /ली. पानी याफास्फेमिडान 0.7 मिली./ली. पानी की दर से घोल बनाकर मार्च-अप्रैल तथादूसरा छिड़काव जून-जुलाई में करें । मिलीवग हेतु अक्टूबर-दिसम्बर में बाग कीजुताई कर मिथाइल पैराथियान धूल 150-200 ग्राम प्रति वृक्ष पेड़ के चारों तरफछिड़काव करें । इसके अलावा क्रिप्टोलाइम्स स्पेसीज के प्रीडेटर 10-12 बीटिलप्रति पेड़ छोड़ने से 30-45 दिन में रोकथाम हो जाती है ।
फल तुडाई एवं उत्पादन :उत्तरी भारत में अमरूद की दो फसलें होती है।एकवर्षाऋतु में एवं दूसरी शीत ऋतु में शीतकालीन फसल के फलों कीगुणवत्ता अधिक होती है । फूल लगने के लगभग 4 से 5 माह बाद फल पककर तोडने के लिए तैयार होते हैं। तीसरे साल में लगभग 8 टन प्रति हेक्टे०उत्पादन मिलता है, जो सातवें वर्ष में 25 टन प्रति हेक्टे0 तक हो जाता है।

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Sunday, December 05, 2021

फसल अवशेषों को उपयोग करने के तरीके

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फसल अवशेषों का प्रबन्ध कर जमीन में जीवांश पदार्थकी मात्रा में वृद्धि कर जमीन की उर्वरता बनाये रखें।.
• कृषक भाई आधुनिक कृषि यन्त्रों जैसे सुपर स्ट्रामैनेजमेन्ट सिस्टम्, स्क्वायर बेलर/रैक्टंगुलर बेलर, पैडीस्ट्राचापर/मल्चर, श्रब मास्टर/कटर-कम स्प्रेडरहाईड्रोलिक रिवर्सिबलर एम.बी.प्लाऊ, रोटरी स्लैशरआदि का प्रयोग करें।
• वर्तमान में इस कार्य के लिये रोटरी स्लैशर, मल्चरआदि से खेत को तैयार करते समय एक बार में हीफसल अवशेषों को बारीक टुकड़ों में काट करमिट्टी में मिलाना काफी आसान हो गया है।
• धान के बाद अवशेष ठूढ वाले खेत में नमी होने कीस्थिति में सीधे जीरो टिल सीड ड्रिल, हैप्पी सीडर, सुपर सीडर मशीन से बुवाई कर सकते हैं। धान केतूद कुछ दिन बाद भूमि में सड़कर खाद बन जाते है |
• वेस्ट डीकम्पोजर साल्यूशनः फसल की कटाई के बादखेत में बचे डंठल व अन्य अवशेषों पर छिड़कावकरने से फसल अवशेष की स्वस्थानिक कम्पोस्टिंगहो जाती है।
• फसल अवशेषों से कम्पोस्ट तैयार कर खेत में प्रयोगकरें। उन क्षेत्रों में जहां चारे की कमी नहीं होती वहांमक्का की कड़वी व धान की पुआल को खेत मे ढेरबनाकर खुला छोड़ने के बजाय गड्ढों में कम्पोस्टबनाकर उपयोग करना आवश्यक है।
• जब किसान भाई खरीफ, रबी, जायद की फसलों कीकटाई मड़ाई करते हैं तो जड़, तना, पत्तियां के रुपोंमें पादप अवशेष भूमि के अन्दर एवं भूमि में ऊपरउपलब्ध होते हैं। इनको लगभग 20 किग्रा यूरिया प्रतिएकड़ की दर से मिट्टी पलटने वाले हल सेजुताई/पलेवा के समय मिला देने से पादप अवशेषलगभग बीस से तीस दिन के भीतर जमीन में सड़जाते हैं, जिससे मृदा में कार्बनिक पदार्थों एवं अन्यतत्वों की बढ़ोत्तरी होती है जिसके फलस्वरुप फसलोंके उत्पादन पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।
• अत: प्रदेश के कृषकों से अनुरोध है कि किसी भी फसलके अवशेष को जलायें नहीं बल्कि मृदा में कार्बनिक पदार्थों की वृद्धि हेतु पादप अवशेषों को मृदा मेंमिलायें/सड़ाये।
फसल अवशेष न जलायें, बल्कि इनसे लाभउठायें
• फसलों की कम्बाइन आदि यन्त्रों से कटाई के उपरान्त बचेफसल अवशेष अत्यंत उपयोगी हैं।
• इनमें महत्वपूर्ण कार्बनिक पदार्थ तथा पोषक तत्व होते हैं।
• इनसे पोषक कार्बनिक खाद तैयार की जा सकती है।
• फसल अवशेषो से बायोकोल, बायो सी0एन0जी0 तथाबायो एथेनाल का व्यवसायिक उत्पादन किया जा सकताहै।
फसल अवशेष के लाभ
• फसल अवशेषों से कम्पोस्ट या वर्मी कम्पोस्ट खादबनाकर प्रयोग करने से खेत की उर्वरता में वृद्धि होती है ।
• भूमि में लाभदायक जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है।
• खेत की मृदा की भौतिक एवं रासायनिक संरचना सुधरतीहै।
• भूमि में जल धारण एवं वायुसंचार क्षमता बढ़ती है।
• फसल अवशेषों की मल्चिंग करने से खरपतवार कम होतेहै तथा जल का वाष्पोत्सर्जन कम होता है।
फसल अवशेष जलाने से हानि
• फसलो के अवशेषों को जलाने से उनके जड़, तना,पत्तियों के लाभदायक पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं।
• फसल अवशेषों को जलाने से मृदा ताप में वृद्धि होती हैजिसके कारण मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैविकदशा पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
• पादप अवशेषों में लाभदायक मित्र कीट जलकर मर जातेमेंहै, जिसके कारण वातावरण पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
• पशुओं के चारे की व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ताहै।
• फसल अवशेषों को जलाने से किसानों की नजदीकीफसलों में और आबादी में आग लगने की संभावना बनीरहती है।
• वायु प्रदूषण से अनेक बीमारियां तथा धुंध के कारणदुर्घटनाए हो सकती हैं।

फसल अवशेष जलाना दण्डनीय अपराधघोषित
• कृषि भूमि का क्षेत्र 02 एकड़ से कम होने की दशा मेंअर्थ दण्ड रु. 2500/- प्रति घटना।
• कृषि भूमि का क्षेत्र 02 एकड़ से अधिक किन्तु 05 एकड़तक होने की दशा में अर्थदण्ड रु. 5000/- प्रति घटना।
• कृषि भूमि का क्षेत्र 05 एकड़ से अधिक होने की दशा मेंअर्थदण्ड रु. 15000/- प्रति घटना।
• कम्बाइन हार्वेस्टिग मशीन का SMS (सुपर स्ट्रा मैनेजमेंटसिस्टम), मल्चर, जीरो टिल सीड ड्रिल, सुपर सीडर,हैप्पी सीडर, रीपर के बिना प्रयोग प्रतिबन्धित कर दियागया है।
• कृषि अपशिष्ट के जलाये जाने की पुनरावृत्ति होने कीदशा में (लगातार दो घटनायें होने की दशा में) सम्बन्धितकृषकों को सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली सुविधाओंतथा सब्सिडी आदि से वंचित किये जाने की कार्यवाही केनिर्देश राष्ट्रीय हरित अधिकरण नई दिल्ली द्वारा दिये गये हैं। sabhar krishi vibhag up

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Friday, December 03, 2021

गेंदा की खेती

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गेंदा महत्वपूर्ण व लोकप्रिय व्यवसायिक पुष्प है। यह विभिन्न भौगोलिकजलवायु में छाया दार स्थानों पर एवं गृहवाटिका में भी आसानी से साल भर उगाया जासकता है। गेंदा पर कीट व रोगों का प्रकोप भी बहुत कम होता है।
जलवायु-साल भर-तीनों मौसम में खेती सम्भव । अनुकूल तापक्रम 20-38 सेन्टी।
उपयुक्त भूमि-अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी जिसका पी एच मान7-7 हो । रोपाई से पहले जुताई कर मिट्टी को भुरभुरी बनाये।
प्रमुख प्रजातियाँ (मुख्यताः दो)
अफ्रीकन गेंदा (हजारिया) फ्रेंच गेंदा या गेंदी
पौधे ऊंचे, गुथे हुए फुल बौने व छोटे फूल
पूसा बसती. पूसा नारगी. कसन ऑफगोल्ड, येलो सुपीम, डबल आफ्रीकनडबल पीला, कैकर जैक गोल्डन ऐज रस्टीडी.बटर स्कॉच, बटन बॉल,फॉयर ग्लो. रेड बोकार्ड, स्टार ऑफइण्डिया आदि।

बुआई का समय
बीज बोने का समय पौधे लगाने का समय पुष्पन का समय
मध्य जून 15 जुलाई बरसात के अलगे
मध्य सितम्बर 15 अक्टूबर ठण्ड में
जनवरी-फरवरी फरवरी-मार्च गर्मी में

बीज की मात्रा-एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में गेंद की फसल के लिये 1.5 किग्रा. बीजपर्याप्त होता है। बहुत पुरानाबीज नहीं लेना चाहिए, क्योंकि उनकी अंकुरण घट जाती है।
भूमि की तैयारी-
• बीज बोने से पहले जमीन को 2 प्रतिशत फार्मलीन से उपचारित करें।
• उपचार के बाद जमीन को दो दिन तक पॉलीथीन या प्लास्टिक के बोरे से ढक कररखें।
• अब हमीन को सूखा कर 15 सेमी ऊँची, एक मी. चौड़ी एवं 5-6 मी लम्बी क्यारियाँबनायें।
• दो क्यारियों के मध्य 30 सेमी. का अन्तररखें ताकि पानी देने एवं निराई-गुडाई केकार्य में आसानी रहे।
• नर्सरी / क्यारियों की गुडाई कर 10 किग्रा सड़ी गोबर की खाद अच्छी तरह से मिलायें।

रोपाई, नर्सरी एवं पौध की तैयारी-
• 250-300 कुन्तल प्रति हेक्टेयर की दर से खाद भूमि में जुताई कर मिला देनीचाहिए।
• अधिक उत्पादन एवं वृद्धि के लिये नत्रजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश की मात्रा 12080:80 किग्रा प्रति हेक्टेयर प्रयोग करें।
• फॉस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा की तैयारी करते समय अच्छी तरह मिला देनीचाहिए।
• नाइट्रोजन का दो भागें में बांटक भाग क्यारियों में पौध लागाने के लिए एक माहबाद एवं दूसरा भाग दो माह बाद देना चाहिए।
पौधारोपण समय एवं दूरी-
पर्सरी में बीज बोने के 30-35 दिनों में 3-4 पत्तियों वाले पौधे तैयार हो जाते हैं
आफ्रीकन गेंदे हेतु फ्रेंच गेंदे हेत30 सेमी.
कतार से कतार की 45 सेमी 30 सेमी
पौधे से पौधे की दूरी 30 सेमी 30 सेमी
रोपण का कार्य शाम के समय होना चाहिए। नर्सरी में पौध उखाड़ते समय हल्कीसिंचाई करें ताकि उखाड़ते समय पौधे की जड़ों में क्षति ने पहुँचें। रोपाई के बाद भीहल्की सिंचाई आवश्यक है।
सिंचाई-यह अपेक्षाकृत कम पानी की फसल है। सामान्यतः 10-15 दिनों के अन्दर परहल्की सिंचाई करनी चाहिए।
निराई गुड़ाई-आरम्भिक अवस्था में इसका विशेष महत्व है।
पहली गुडाई-रोपण के 20-25 दिन बाद ।
दूसरी गुड़ाई-रोपण के 40-45 दिन बाद। जब भी आवश्यक हो खर-पतवारनियंत्रण आवश्यक करें।
पिचिंग-यह क्रिया पौधे को छोडे, झाड़ीनुमा तथा अधिक शाखाओं वाला बनाने के लिएकी जाती है, जिससे अधिक मात्रा में फूल प्राप्त हो सकें। पौधे को रोपने के बाद जब फूलकी पहली कली दिखाई दे तो उस समय शाखाओं के ऊपरी भाग को तोड़ देते हैं,जिससे नये पौधे पर कई शाखायें निकल आती हैं।
तुड़ाई-2-3 महीने बाद फूल खिलना प्रारम्भ हो जाते हैं। इन्हें तेज चाकू यासिकेटियर से तिरछा काटें। सूखे फूलों को अलग कर दें। तो उस समय में तोड़कर गनीबैग, प्लास्टिक क्रेट या बांस की टोकरियों में पैकिंग कर बाजार भेंजे। टूटे हुये फूलों काछयादार स्थान पर रखकर आवश्यकतानुसार हल्का गीला करते रहें।
पैकेजिंग -आकर्षक पैकेजिंग अच्छा मूल्य दिलाने, क्रय हेतु प्रेरित करने एवं गुणवत्ताव भण्डारण बनाये रखने में सहायक है। कोरोगेटेड पैकेजिंग विशेष उपयोगी है।
उपज-अधिकतम 350 कुन्तल प्रति हेक्टेयर तक । लागत 5-6 गुने से भी अधिक कीप्राप्ति सम्भव।
वीज प्राप्ति-पकने पर सुखाकर उनकी बाहर की एक-दो परत का बीज रखें, शेषफेंक देना चाहिए। ऐसा करने पर पूर्ण खिले हुये पुष्प प्राप्त होते हैं।
प्रमुख रोग एवं कीटों से बचाव
रोग का नाम रोकथाम एवं उपचार
• आई पतन उचपदह वृद्धि नर्सरीअवस्था में बीजों का कम जमाव व पौधोंका टूट कर गिरना। अधिकतम नम व गर्मभूमि पर तेजी से फैलता है। • बीज व भूमि शोधन करें। जल निकासकी समुचित व्यवस्था करे। प्रमाणितपौधों पर मैकोजेब या ताम्रयुक्तरसायन का आवश्यकतानसारछिडकाव करें।
• खर्रा रोग चूकमतल उपसकमूद्धसफेद चूर्ण नुमा फफूदी का जमाव होता है,बढाकर रूक जाती हैएवं पौधासूख जाता है | • संस्तुत कतकनाशी रसायनको पानी मेंघोलकर 15 दिन के अन्तराल परछिड़काव करें। सल्फर पाउडर काभुरकाव करें।
• विषाणु रोग पत्तियाँ चितकबरी होकरमुड हाती है। पुष्प कम एवं छोटे रह जातेहै | • रोगी पौधों को नष्ट कर दें।कीटनाशक रसायनों का छिड़कावकरें।
• मृदु गलन रोग प्रभावित भाग सड़करचिपचिपा एवं गंधयुक्त हो जाता है। • बीजोपचार कर बीज सुखाकर बोये ।खड़ी फसल में स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 100पी.पी.एम. (1 ग्राम. दवा 100 ली पानीमें) का छिड़काव करें।

कीट का नाम रोकथाम एवं उपचार
• कलिकाभेदक ठनह ठवतमतद्ध (हैलियेथिस आर्मीजेरा) इस कीट कीअल्लियाँ पंखुड़ियों को खा जाती हैं। • ग्रसित भाग को नष्ट करें। प्रकोप होने परएन.पी.वी. प्रयोग करें। इण्डोसल्फान याक्यूनलफास 0.07 प्रतिशत का छिड़कावआवश्यकतानुसार करें।
• पूर्ण फुदका (एमरास्का विगुदुला)इनके द्वारा पत्तियों का रस चूसने सेवे सिकुड़कर पीली होकर गिर जाती | • प्रकाश प्रपंच ,स्पहीज ज्तंचद्ध एवंकीटनाशक युक्त चिपकाने वाले ट्रैप लगाये |
• थ्रिप्स पत्तियों का रस यूसकर उन्हें • पूर्ण फुदका की भाँति।
• रेड स्पाइडर माइट फूलों के खिलनेके समय आक्रमण करते हैं। • डाई मिथोएट या मोनो कोटोफास दवा की1 मिली. मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकरआवश्यकतानुसार छिड़काव करें।
• हेरी कैटरपिलर पत्तियों को खाता है। • इन्डोसल्फान 1 मिली. मात्रा प्रतिलीटरपानी में आवश्यकतानुसार छिड़कावकरें।
• लीफ स्पॉट एण्ड ब्लाइट पत्तियों परगोल भरे धब्बे बाद में पूरे पौधे को क्षति पहुंचाती है। • मैकोजेब दवा की25 ग्राम मात्रा प्रतिलीटरपानी में घोलकर आवश्यकतानुसार केअनुसार छिड़काव करें। आभार कृषि विभाग उत्तर प्रदेश
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Monday, November 15, 2021

pusha samachar

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https://youtu.be/szQ3KdKAnPg

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Thursday, October 21, 2021

राजमा (फ्रेंच बीन) के विभिन्न रूप

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प्रमुख उन्नत किस्में -
पीडीआर 14 - इस किस्म को उदय के नाम से भी जाना जाता है. जिसके दानों का रंग लाल चित्तीदार होता है. यह 125 से 130 दिन में पक जाती है और इससे प्रति हेक्टेयर 30 -35 क्विंटल राजमा पैदा होता है.

मालवीय 137- 110 से 115 में पकने वाली इस किस्म के दानों का रंग लाल होता है. इससे प्रति हेक्टेयर 25 से 30 क्विंटल की पैदावार होती है.

वीएल 63 - यह किस्म 115 से 120 दिनों में पक जाती है. इसके दानों का रंग भूरा चित्तीदार होता है. इससे भी प्रति हेक्टेयर 25 से 30 क्विंटल होती है.

अम्बर - राजमा की यह किस्म 120 से 125 दिनों में पक जाती है. इसके दानों का रंग लाल चित्तीदार होता है. इससे प्रति हेक्टेयर 20 से 25 क्विंटल होती है.

उत्कर्ष- इस किस्म से प्रति हेक्टेयर 20 से 25 क्विंटल की पैदावार होती है. दानों का रंग गहरा चित्तीदार होता है. यह किस्म 130 से 135 दिनों में पक जाती है.

अरुण - इसके दानों का रंग भी गहरा चित्तीदार होता है. यह किस्म 120 से 125 दिनों में पक जाती है. इससे प्रति हेक्टेयर 15 से 18 क्विंटल की पैदावार होती है. Sahar Facebook 

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