आम की अं
बिका एवं अरुणिका दोनो गमले में लगाने योग्य किस्मे है अम्रपाली भी बौनी क़िस्म है लेकिन अरुणिका आम्रपाली की तुलना में 40% ज्यादा बौनी है
आप इसके पौधे CISH रह्मानखेड़ा, लखनऊ से खरीद सकते है
Pintu Meena Pahadi
खेती की अवधारणा पिन्टु मीना पहाड़ी
krishi aur swasth
आम की अं
आप इसके पौधे CISH रह्मानखेड़ा, लखनऊ से खरीद सकते है
Pintu Meena Pahadi
खेती की अवधारणा पिन्टु मीना पहाड़ी
आज आपका परिचय होगा एक और कीट "सफ़ेद मक्खी" से जिसकी वजह से पौधों में दोहरा नुकसान होता है स्वयं रस चूसकर तो पौधे को नष्ट करता ही है साथ में वायरस जनित बीमारियों को फैलाने में इसका मुख्य योगदान होता है। सफ़ेद मक्खियाँ एक प्रकार के की छोटी रस-चूसने वाली कीट हैं। सफ़ेद मख्खी अपने छोटे आकार, सफेद या हल्के पीले रंग और तेजी से प्रजनन करने की क्षमता के लिए जानी जाती है। इसकी कई प्रजातियां है जिनके होस्ट प्लांट की प्राथमिकताएं अलग अलग है। कृषि और बागवानी फसलों का एक मुख्य कीट है। सफ़ेद मक्खियाँ सब्जियों, फलों, सजावटी पौधों और फसलों सहित पौधे की अनेकों प्रजातियों को प्रभावित करती है। कपास, भिंडी, गुड़हल, मिर्च, टमाटर, बेंगन, गुलाब, कद्दू वर्गीय सब्जियां, पपीता और सजावटी फूलों के पौधे सम्मिलित है।
नुकसान का तरीका : सफ़ेद मक्खियाँ पौधों के फ्लोएम ऊतक में छेद करके और रस निकालकर उन्हें खाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप पौधों की बढ़वार रुक जाती है। सफ़ेद मख्खी का भारी संक्रमण होने पर पोषक तत्वों और ऊर्जा की हानि के कारण पौधों का विकास रुक जाता है। संक्रमित पौधों में अक्सर पोषक तत्वों की कमी और सफेद मक्खी द्वारा लाए गए पौधों के वायरस के संचरण के कारण पीलापन, मुरझाना और पत्तियां गिरने के लक्षण दिखाई देते हैं। वायरस जनित बीमारियों को फैलाने में इसका मुख्य योगदान रहता है, मोजेक, लीफ कर्ल, रिंग स्पॉट जैसे वायरस जनित रोग इसी से फैलते है। समय पर इस कीट का नियंत्रण वायरस जनित बिमारियों से पौधों को बचाये रखता है। इसके अलावा इनके द्वारा निकाला गया मल हनी ड्यू होता है जिस पर सूटी मोल्ड (एक प्रकार की काली फफूंद) आती है और ये काली फफूंद पत्तियों को ढक कर प्रकाश संश्लेषण को प्रभावित करती है।
जीवन चक्र : सफ़ेद मक्खियों का जीवन चक्र छोटा होता है जिसमें कई चरण होते हैं। मख्खियां आमतौर पर पत्तियों की निचली सतह पर गोलाकार अंडे देती है जो शुरू में पीले होते हैं लेकिन विकसित होते-होते गहरे हो जाते हैं। अंडे सेने के बाद, निम्फ, जिन्हें अक्सर क्रॉलर कहा जाता है, भोजन करने के लिए पहले इधर-उधर घूमते हैं। जैसे-जैसे वे बढ़ते हैं, वे कई चरणों से गुजरते हैं। निम्फ अंततः प्यूपा में बदल जाते हैं, जिसके दौरान वे कम गतिशील होकर स्थिर रहते हैं और अक्सर एक सुरक्षात्मक मोमी पदार्थ से ढके हुए दिखाई देते हैं। विकास पूरा होने पर वयस्क सफेद मक्खियाँ प्यूपा से निकलती हैं जो अपनी अगली पीढ़ी के लिए प्रजनन करती है।
नियंत्रण के उपाय : सफ़ेद मख्खी द्वारा विभिन्न कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोध विक्सित होते हुए देखा गया है। इसका मुख्य कारण इनका छोटा जीवन चक्र और अनियंत्रित कीटनाशियों का उपयोग, अधिक मात्रा में कीटनाशकों का उपयोग जैसे कारण मुख्य है। इसके नियंत्रण और होने वाले दुष्प्रभावों को कम करने के लिए निश्चित रूप से इंटीग्रेटेड पेस्ट मैनेजमेंट की विधियों को अपनाये जाने की आवश्यकता है। इस कीट के प्रभाव को इस बात से देखा जा सकता है की मिर्च और कपास उगाने वाले किसान इसके नियंत्रण के लिए सर्वाधिक कीटनाशकों का उपयोग करते है।
1. कृषिगत उपाय : नियमित रूप से निगरानी करें, पौधों में हवा और प्रकाश का संचार सही रहे इसके लिए फसल को ज्यादा घना नहीं लगाएं, सफ़ेद मख्खी के लिए अनुकूल वातावरण को कम करने के लिए पौधों को उचित स्थान दें और उनकी छँटाई करें। प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग करें।
2. भौतिक उपाय : नर्सरी में पौधों को बचाव के लिए नेट का उपयोग करें।
3. जैविक नियंत्रण: सफ़ेद मख्खी की जनसँख्या को नियंत्रित करने में शिकारी कीटो का बहुत बड़ा योगदान है। सफ़ेद मख्खी के प्राकृतिक शिकारी कीटो जैसे लेडीबग्स, लेसविंग्स, परजीवी ततैया और शिकारी बग्स को संरक्षित करें।
4. चिपचिपे ट्रैप का प्रयोग : पीले चिपचिपे ट्रैप्स सफ़ेद मख्खी की संख्या को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। खेत में इनका प्रयोग मख्खियों की संख्या को नियंत्रित रखता है।
5. रासायनिक नियंत्रण : जैसा की पहले भी लिखा है यह कीट कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोध विकसित करने की क्षमता रखता है। इसके लिए जैविक और रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग बदल बदल कर किया जाना चाहिए। कीटनाशक और पानी की मात्रा हमेशा अनुशंसित दर पर ली जानी चाहिए। छिड़काव के अंतराल का पालन आवश्यक रूप से किया जाना चाहिए। अंतर्प्रवाही या सिस्टमिक कीटनाशी का उपयोग लाभकारी रहता है।
नोट : मिर्च, टमाटर, पपीता जैसे पौधों में सफ़ेद मख्खी का आक्रमण नर्सरी अवस्था में ही हो जाता है और आप वायरस ग्रसित पौधा ही अपने खेत में लगाते है। यदि आप नर्सरी में सही तरीके से इसको नियंत्रित कर लेते है तो खेत में बिमारी आने की सम्भावना को बहुत हद तक कम कर देते है।
#अथ_श्री
© Crazy gardener
गाजर एक महत्वपूर्ण जड़वाली सब्जी की फ़सल है I गाजर की खेती पूरे भारतवर्ष में की जाती है गाजर को कच्चा एवं पकाकर दोनों ही तरह से लोग प्रयोग करते है गाजर में कैरोटीन एवं विटामिन ए पाया जाता है जो कि मनुष्य के शरीर के लिए बहुत ही लाभदायक है नारंगी रंग की गाजर में कैरोटीन की मात्रा अधिक पाई जाती है गाजर की हरी पत्तियो में बहुत ज्यादा पोषक तत्व पाये जाते है जैसे कि प्रोटीन, मिनिरल्स एवं विटामिन्स आदि जो कि जानवरो को खिलाने पर लाभ पहुचाते है गाजर की हरी पत्तियां मुर्गियों के चारा बनाने में काम आती है गाजर मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, असाम, कर्नाटक, आंध्रा प्रदेश, पंजाब एवं हरियाणा में उगाई जाती हैI
जलवायु
गाजर मूलत ठंडी जलवायु कि फसल है इसका बीज 7.5 से 28 डिग्री सेल्सियस तापमान पर सफलतापूर्वक उग सकता है जड़ों कि बृद्धि और उनका रंग तापमान से बहुत अधिक प्रभावित होता है 15-20 डिग्री तापमान पर जड़ों का आकार छोटा होता है परन्तु रंग सर्वोत्तम होता है विभिन्न किस्मों पर तापमान का प्रभाव - भिन्न भिन्न होता है यूरोपियन किस्मों 4-6 सप्ताह तक 4.8 -10 डिग्री से 0 ग्रेड तापमान को जड़ बनते समय चाहिए I
भूमि
गाजर की खेती दोमट भूमि में अच्छी होती है. बुआई के समय खेत की मिट्टी अच्छी तरह भुरभुरी होनी चाहिए जिससे जड़ें अच्छी बनती है भूमि में पानी का निकास होना अतिआवश्यक हैI
भूमि कि तैयारी
शुरू में खेत को दो बार विक्ट्री हल से जोतना चाहिए , इसके 3-4 जुताइयाँ देशी हल से करें प्रत्येक जुताई के उपरांत पाटा अवश्य लगाएं , ताकि मिटटी भुरभुरी हो जाए 30 सेमी 0 गहराई तक भुरभुरी होना चाहिए
उत्तम क़िस्में
पूसा केसर
यह लाल रंग की उत्तम गाजर की क़िस्म है. पत्तियाँ छोटी एवं जड़ें लम्बी, आकर्षक लाल रंग केन्द्रीय भाग व संकरा होता है. फ़सल 90-110 दिन में तैयार हो जाती है. पैदावार : 300-350 क्विंटल प्रति हेक्टेअर होती है
पूसा यमदाग्नि
यह प्रजाति आई० ए० आर० आई० के क्षेत्रीय केन्द्र कटराइन द्धारा विकसित की गयी है. इसकी पैदावार 150-200 क्विंटल प्रति हेक्टेअर होती है.
नैन्टस
इस क़िस्म की जडें बेलनाकार नांरगी रंग की होती है. जड़ के अन्दर का केन्द्रीय भाग मुलायम, मीठा और सुवासयुक्त होता है. 110-112 दिन में तैयार होती है. पैदावार 100-125 क्विंटल प्रति हेक्टेअर होती है.
बुआई का समय
मैदानी इलाकों में एशियाई क़िस्मों की बुआई अगस्त से अक्टूबर तक और यूरोपियन क़िस्मों की बुआई अक्टूबर से नवम्बर से करते हैं.
बीज की मात्रा
एक हेक्टेअर क्षेत्र के लिए 6-8 कि०ग्रा० बीज की आवश्यकता पड़ती है.
बुआई और दूरी
इसकी बुआई या तो छोटी-छोटी समतल क्यारियों में या 30-40 से०मी० की दूरी पर मेंड पर करते हैं.
निराई-गुड़ाई व सिंचाई
बुआई के समय खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए. पहली सिंचाई बीज उगने के बाद करें. शुरू में 8-10 दिन के अन्तर पर तथा बाद के 12-15 दिन के अन्तर पर सिंचाई करें.
खाद और उर्वरक
एक हेक्टेअर खेत में लगभग 25-30 टन सही गोबर की खाद अन्तिम जुताई के समय तथा 30 कि०ग्रा० नाइट्रोजन तथा 30 कि०ग्रा० पौटाश प्रति हेक्टेअर की दर से बुआई के समय डालें. बुआई के 5-6 सप्ताह बाद 30 कि०ग्रा० नाइट्रोजन को टॉप ड्रेसिंग के रूप मे डालें.
सिंचाई
बुवाई के बाद नाली में पहली सिंचाई करनी चाहिए जिससे मेंड़ों में नमी बनी रहे बाद में 8 से 10 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिएI गर्मियों में 4 से 5 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिएI खेत को कभी सूखना नहीं चाहिए नहीं तो पैदावार कम हो जाती हैI
खरपतवार नियंत्रण
गाजर कि फसल के साथ अनेक खरपतवार उग आते है , जो भूमि में नमी और पोषक तत्व लेते है , जिसके कारण गाजर के पौधों का विकास और बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है अत : इन्हें खेत से निकालना अत्यंत आवश्यक हो जाता है निराई करते समय पक्तियों से आवश्यक पौधे निकाल कर मध्य कि दुरी अधिक कर देनी चाहिए बृद्धि करती हुई जड़ों के समीप हल्की निराई गुड़ाई करते रहना चाहिए.
कीट नियंत्रण
गाजर कि फसल पर निम्न कीड़े मकोड़ों का प्रकोप मुख्य रूप से होता है गाजर कि विविल : छ धब्बे वाला पत्ती का टिड्डा.
रोकथाम
नीम का काढ़ा तर बतर कर पम्प द्वारा 10 - 15 दिन के अंतराल पर छिडकाव करे.
रोग नियंत्रण
आद्र विगलन
यह रोग पिथियम अफनिड़रमैटम नामक फफूंदी के कारण होता है इस रोग के कारण बिज के अंकुरित होते ही पौधे संक्रमित हो जाते है - कभी कभी अंकुर भूमि से बाहर नहीं निकाल पाता है और बीज पूरा ही सड जाता है तने का निचला भाग जो भूमि कि सतह से लगा रहता है , सड जाता है फलस्वरूप पौधे वही से टूट कर गिर जाते है पौधों का अचानक गिर पड़ना और सड जाना आद्र विगलन का प्रमुख कारण है.
रोकथाम
बीज को बोने से पूर्व गौ मूत्र से उपचारित करें.
हल्की सिंचाई करनी चाहिए.
खुदाई एवं पैदावार
गाजर की जड़ों की खुदाई तब करनी चाहिए जब वे पूरी तरह विकसित हो जाए. खेत में खुदाई के समय पर्याप्त नमी होनी चाहिए. जड़ों की खुदाई फरवरी में करनी चाहिए. बाजार भेजने से पूर्व जड़ों को अच्छी तरह धो लेना चाहिए. इसकी पैदावार क़िस्म पर निर्भर करती है. एसियाटिक क़िस्में अधिक उत्पादन देती है. पूसा क़िस्म की पैदावार लगभग 300-350 क्विंटल प्रति हेक्टेअर, पूसा मेधाली 250-300 क्विंटल
गाजर की खेती से 3 महीने में कमाओ 4 लाख रूपए,carrots farming,smart business plus,kheti kainse karen,agriculter farming,papaya vairity,chandan ki kheti,tamator farming,elovera farming,smart business,business plus,smart,business,plus,carrots,growing carrots,homegrown carrots,harvesting carrots,carrot pests,carrot,vegetable garden,गाजर की खेती,gajar,गाजर के फायेदे,gajar farming,kainse karen
जाले। किसानों के खेतो में लगा धान के पौधा में किटव्याधी का प्रकोप देखा जा रहा है। कीट व्याधि फसल को लेकर किसान चिंतित है। इस आशय की जानकारी मिलते ही कृषि विभाग ने कृषि विभाग को अपने चिंता से उच्चाधिकारी को अवगत कराया है। इस आलोक में कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक ने किसानों को सलाह दिया है। पौधा संरक्षक वैज्ञानिक डॉ. गौतम कुणाल ने कहा कि फसल की बुआई से लेकर कटाई तक धान की फसल की निरंतर निगरानी करनी पड़ती है। जरा सी चूक हुई और फसल बर्बाद हो सकता है। यह फसल प्राकृतिक चुनौतियां (अल्प वृष्टि) से उबरने के बाद कीट व रोग की समस्या उसके पश्चात पोषक तत्वों की कमी के कारण होने वाली समस्याओं से जूझता है। जिला के किसानों के साथ-साथ सीमावर्ती मुजफ्फरपुर जिला के कटरा प्रखंड के लखनपुर के किसान नवल कुमार के द्वारा भेजे गए धान के पौधा एवं उनके खेतों का निरीक्षण से प्रतीत होता है कि यह फसल जिंक की कमी से ग्रसित है। इसकी जानकारी देते हुए कृषि विज्ञान केंद्र, जाले के पौध संरक्षण वैज्ञानिक डॉ. गौतम कुणाल ने बताया कि प्राय: यह देखा गया है कि जिंक (जस्ता) की कमी प्राय: गहन फसल वाली मिट्टी, धान की मिट्टी और बहुत खराब जल निकासी वाली मिट्टी में देखा गया है। इसकी कमी पौधे की बढ़वार को प्रभावित करती हैं। जिंक की कमी के कारण पौधे की वृद्धि गंभीर रूप से प्रभावित होती है। फसल बुवाई के 15 से 20 दिनों के बाद से ही इसके लक्षण दिखाई देने लगते हैं। उन्होंने बताया कि जस्ता की कमी के कारण पौधे छोटे रह जाते हैं, और उनकी ऊपरी पत्तियों पर भरे-भूरे धब्बे दिखाई देने लगते हैं। एक ही समय पर लगाइ गइ फसले आसमानता रूप से दिखाई देते हैं। खेतों में इसकी अत्यधिक कमी के कारण धान की बालियों में बांझपन की समस्या बढ़ जाती है। कभी-कभी पत्ती की मध्य शिरा के साथ सफेद रेखा दिखाई देती है। कई बार धान से कल्ले निकलना कम हो जाता है और पूरी तरह से रुक सकता है और फसल के पकने का समय बढ़ जाता है। इसके निदान हेतु बुआई पूर्व धान लगने वाले खेत में 40-50 किलो/ हेक्टर की दर से जिंक सल्फेट भूमि में जुताई के समय डालें और अच्छी तरह मिलायें। खड़ी फसल पर 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट का घोल तैयार कर छिड़काव करें। धान की रोपाई के पहले 2-4 प्रतिशत जिंक आॅक्साइड (डेड एन ओ) के घोल में जड़ों को डुबोकर उपचारित करके ही रोपाई करें। इस निदान पर फसल में अच्छा दाना होगा।
कृषि लागत कम करने की मुहिम, माइक्रो इरीगेशन में कवर हुआ 60.63 लाख हेक्टेयर क्षेत्र
👉🏻 मोदी सरकार सिंचाई के तौर-तरीके बदलने की मुहिम में जुट गई है. इसके लिए सूक्ष्म सिंचाई यानी माइक्रो इरीगेशन (Micro irrigation) पर जोर दिया जा रहा है. ताकि कृषि लागत कम हो और उत्पादकता में वृद्धि हो सके. इसके तहत पिछले सात साल में 60.63 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को कवर कर लिया गया है. सरकार ने अगले पांच साल में सिंचाई की इस पद्धति के तहत 100 लाख हेक्टेयर भूमि कवर करने का लक्ष्य रखा है. आगामी वित्त वर्ष में कुल 20 लाख हेक्टेयर जमीन इसके तहत कवर की जाएगी. 👉🏻 केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना की प्रति बूंद अधिक फसल (Per Drop More Crop) मुहिम के तहत वर्ष 2014-15 से 2020-21 तक राज्यों को 15,511.59 करोड़ की केंद्रीय सहायता जारी की गई. वर्ष 2018-19 के दौरान नाबार्ड के साथ 5000 करोड़ की प्रारंभिक पूंजी के साथ माइक्रो इरीगेशन फंड (MIF) बनाया गया है. इसे प्रमोट करने के लिए 2021-22 के बजट में इसका फंड बढ़ाकर 10,000 करोड़ रुपये कर दिया गया है. नई सिंचाई पद्धति पर क्यों है जोर? 👉🏻 माइक्रो इरीगेशन के तीन प्रमुख लाभ हैं, जिसकी वजह से मोदी सरकार का इस पर जोर है. पहला इस पद्धति में पारंपरिक के मुकाबले काफी कम पानी लगता है. दूसरा, ऊर्जा व खादों पर खर्च कम हो जाता है और तीसरा उत्पादकता में इजाफा हो जाता है. सरकार खासतौर पर पानी की कमी को देखते हुए अब सिंचाई का पैटर्न बदलना चाहती है. कितनी होगी बचत 👉🏻 माइक्रो इरिगेशन टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से 48 फीसदी तक पानी की बचत (Save Water) का दावा विशेषज्ञ करते हैं. ऊर्जा की खपत में भी कमी आएगी. इस प्रणाली का ढांचा एक बार तैयार हो गया तो इसमें मजदूरी घट जाएगी. नई पद्धति से ही पानी के साथ फर्टिलाइजर का घोल मिला देने से 20 फीसदी तक की बचत होगी. उत्पादन में इजाफा होगा. सूक्ष्म सिंचाई में ड्रिप इरिगेशन, माइक्रो स्प्रिंकल (सूक्ष्म फव्वारा), लोकलाइज इरिगेशन (पौधे की जड़ को पानी देना) आदि तरीके हैं. पारंपरिक सिंचाई से नुकसान 👉🏻 कृषि क्षेत्र में 85 से 90 फीसदी तक पानी की खपत होती है, जबकि देश के कई हिस्सों में पानी की बहुत किल्लत है. खेत में पानी भर देने (flood irrigation) वाली पद्धति से पानी और पैसा दोनों का खर्च ज्यादा होता है. यही नहीं इससे मिट्टी में डाली गई खाद भी नीचे चली जाती है. इसलिए किसानों का नुकसान होता है और उत्पादकता कम हो जाती है. Sabhar agrostar
#जोहाधान #जोहाचावल #JOHAPADDY #JOHARICE
यह दुनियां का ऐसा चावल है जो कई गंभीर और लाइलाज बीमारियों के रोकथाम
इसकी अन्य किस्मों में कोला जोहा (काली जीरा, कोला जोहा 1, कोला जोहा 2, कोला जोहा 3), केटेकी जोहा और बोकुल जोहा के दाने मध्यम पतले प्रकार के होते हैं लेकिन कोन जोहा (कुंकिनी जोहा, माणिकी माधुरी जोहा और कोनजोहा) के दाने छोटे पतले प्रकार के होते हैं. इसे हार्ट, कैंसर, डायबिटीज सहित कई गंभीर बीमारियो में प्रभावी माना जाता है।
sabhar facebook.com wall
एक पशु से दूसरे पशु में फैलने वाले रोग जो वैक्टीरिया, वाइरस से पनपते हैं को संक्रामक रोग कहते हैं । पशुपालक जानते हैं कि संक्रामक रोगों द्वारा दुधारू पशुओं में भारी आर्थिक हानि होती है।
पशुओं के प्रमुख संक्रामक रोग निम्न हैं
। 1- खुरपका-मुहपका रोग (Foot & Mouth Disease) • यह विषाणु जनित संक्रामक रोग हैं।
इस रोग में तेज बुखार आता है जो 40 डिग्री सेन्टीग्रेड तक पहुँचता है।
मुँह में छाले हो जाते हैं व लार टपकती रहती है ।
खुर में घाव हो जाने के कारण पशु एक स्थान पर खड़ा नहीं रह पाता है।
पशु लंगडाकर चलता है।
घाव में कीड़े पड़ जाते हैं ।
मुँह में छाले पड़ जाने के कारण पशु खाना-पानी छोड़ देता है ।
इस रोग के कारण दुग्ध उत्पादन में अत्याधिक कमी आ जाती है । (गर्भपात भी हो जाता है)
बचाव :
प्रदेश में निःशुल्क टीकाकरण किया जाता है।
टीका वर्ष में दो बार लगाया जाता है । (मार्च / अप्रैल एवं सितम्बर / अक्टूबर) बीमार होने पर उपाय : 1
यदि पशु रोग से ग्रसित हो तो स्वस्थ्य पशुओं से अलग रखना चाहिए। रोगी
से धोना चाहिये तथा खुर 1 प्रतिशत कापर सल्फेट के घोल से धोना चाहिये । 2- रैबीज (Rabies)
पशु का मुँह 2 प्रतिशत फिटकरी के घोल
यह रोग वाइरस जनित है तथा पागल कुत्ते, सियार, नेवले के काटने से होता है।
प्रमुख लक्षण
पशु को उग्र होना । ●
मुँह से लार टपकना ।
●
● रोगी पशु द्वारा कंकड / मिट्टी को पकड़ कर चबाने का प्रयास करना । ● पशु का लकवा होता है।
पश को लकवा भी हो जाता है ।
ग्रसित पशु के काटने से व लार लगने से मनुष्य में भी यह रोग फैल जाता है।
● रोग संज्ञान में आने पर पशु को अन्य पशुओं से अलग बाँधना चाहिये तथा पशु चिकित्सक की सलाह के अनुसार कार्य करना चाहिये ।
3- गला घोटू (Haemorrhagic Septicemia) यह जीवाणु जनित रोग है। इस रोग में 40-41 डिग्री
सेल्सियस तक बुखार होता है।
गले में सूजन आ जाती है। सांस लेने में कठिनाई होती
है तथा घर-घुर की आवाज आती है।
: चिकित्सा न होने पर रोगी पशु की मृत्यु हो जाती है।
यह भी जीवाणु जनित रोग
यह रोग मुख्यतः 6 माह से 2 वर्ष की आयु के स्वस्थ्य पशुओं में अधिक होता है।
प्रमुख लक्षण में :
• तेज बुखार आना
पैर व पुट्ठों में सूजन आना
और सूजन के दबाव से चरचराहट की आवाज आती है। बचाव :
रोग की रोकथाम के लिये पशुओं में मई-जून में विभाग द्वारा निःशुल्क टीकाकरण विभाग द्वारा लगाया जाता है। .
U बीमार पशुको एन्टी ब्लैक क्वाटर सीरम लगवाना चाहिये ।
· मरे पशु को जमीन में गाड़ देते हैं, जिससे कि अन्य पशुओं में संक्रमण न हो सके।
5 - क्षय रोग (Tuberclosis)
यह जीवाणु जनित रोग है।
प्रमुख लक्षण में :
• रोगी पशु के फेफड़े में गाँठे पड़ जाती हैं।
•
दुधारू पशु में थन के अन्दर गाँठ सी पड़ जाती है । उपरोक्त लक्षण मिलने पर तत्काल नजदीक के पशुचिकित्सालय में सम्पर्क करें। अन्य
यह रोग आम तौर पर बरसात में होता है परन्तु वर्ष में कमी भी हो सकता है।
बचाव : रोग की रोकथाम के लिये पशुओं में प्रति वर्ष मई-जून माह में टीका निःशुल्क लगाया जाता है। रोग हो जाने पर बीमार पशु को अलग रखना चाहिये तथा उपचार कराये ग्रसित पशुओं को धुंआ नहीं देना चाहिये तथा खुले स्थान पर रखना चाहिये ।
4- लंगडिया बुखार (Black Quarter)
आम की अं बिका एवं अरुणिका दोनो गमले में लगाने योग्य किस्मे है अम्रपाली भी बौनी क़िस्म है लेकिन अरुणिका आम्रपाली की तुलना में 40% ज्यादा बौनी...