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Tuesday, March 04, 2025

चीना का भात

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 🍁चीना(चीणा) शायद अब ये फसल विलुप्त हो चुकी है या बहुत कम मात्रा में उगाई जा रही है, कई वर्षों से देखा नही इस फसल को❣️

🌾चीना का भात खाने का जिसे भी सौभाग्य मिला है वह जानता है कि यह कितना टेस्टी होता है। पहले यह चावल का विकल्प था। इसको खाने में सबसे बड़ी सावधानियां है कि अगर आप इसे दाल या दही के साथ खा रहे हैं तो अपनी अपने साथ रखिए। चीना भारत में उगाई जाने वाली महत्वपूर्ण लघु फसल है। फसल जल्दी पकने के कारण सूखे से बचने में सक्षम है। अपेक्षाकृत कम पानी की आवश्यकता वाली कम अवधि की फसल (60 -90 दिन) होने के कारण, यह सूखे की अवधि से बच जाती है और इसलिए शुष्क भूमि क्षेत्रों में गहन खेती के लिए बेहतर संभावनाएं प्रदान करती है। असिंचित परिस्थितियों में, बाजरा आमतौर पर खरीफ मौसम के दौरान उगाया जाता है, लेकिन जिन क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है, वहां उच्च तीव्रता वाले चक्रों में ग्रीष्म फसल के रूप में इसे लाभप्रद रूप से उगाया जाता है।यह एक सीधा शाकीय वार्षिक पौधा होता है जो प्रचुर मात्रा में उगता है। इसका पौधा 45-100 सेंटीमीटर की ऊंचाई तक बढ़ता है। तना स्पष्ट रूप से सूजे हुए गांठों के साथ पतला होता है। जड़ें रेशेदार और उथली होती हैं। पत्तियाँ रेखीय, पतली होती हैं और पत्ती आवरण पूरे इंटर्नोड को घेरता है।चीना की पौष्टिकता प्रमुख अनाज की फसलों से बेहतर है। यह कैल्शियम, फास्फोरस, पोटेशियम, सोडियम, मैग्नीशियम, मैंगनीज, आयरन और जस्ता जैसे खनिजों का एक अच्छा स्त्रोत है। इसमें सभी आवश्यक अमीनो एसिड पाए जाते हैं। इसका आवश्यक अमीनो एसिड इंडेक्स 51 प्रतिशत है जो गेहूं की तुलना में अधिक है।

🌾 चीना का सेवन ब्लडप्रेशर और मधुमेह के मरीजों के लिए रामबाण होता है. चीना भिंगोकर, सुखाकर और भूनकर खा सकते हैं. इसे भात, खीर, रोटी आदि बनाकर खाया जाता है. पोषक तत्वों और फाइबर से भरपूर है. प्रति 100 ग्राम चीना में 13.11 ग्राम प्रोटीन और 11.18 ग्राम फाइबर के अतिरिक्त बड़ी मात्रा में आयरन और कार्बोहाइड्रेट पाये जाते हैं. इसलिए इसे पोषक तत्व फसल कहते हैं। इसका भात दही के साथ गजब का स्वाद देता है और भूनकर गुड मिलाकर खाने में भी  मज़ेदार होता है @highlight #viralpage #indianwedding #hindustan #quotes #memes #indian #धरोहर साभार Facebook 

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Monday, March 03, 2025

बारहों महीने फूल देने वाले ये पौधे -- चमेली, गुड़हल, रंगून क्रीपर, अपराजिता और विंका

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 12 महीने फूल देने वाले ये पौधे -- चमेली, गुड़हल, रंगून क्रीपर, अपराजिता और विंका


—सही देखभाल करने पर सालभर खिलते रहते हैं। इनसे अधिक फूल पाने के लिए नीचे दिए गये सुक्षाव के बारे में अवश्य पढ़ें।


1. चमेली (Jasmine)


धूप: पूरे दिन की धूप (कम से कम 5-6 घंटे) जरूरी है।


पानी: गमले में हो तो रोज हल्का पानी दें; ज़मीन में लगे हों तो 2-3 दिन में एक बार पानी दें।


खाद: हर महीने गोबर की खाद डालें और 2 महीने में एक बार फ़ॉस्फोरस युक्त खाद (जैसे हड्डी चूर्ण या डीएपी) दें।


छंटाई: सूखी और पुरानी टहनियों को काटें ताकि नई कोंपलें निकलें और ज्यादा फूल आएं।


2. गुड़हल (Hibiscus)


धूप: कम से कम 4-5 घंटे की धूप में रखें।


पानी: रोज पानी दें, लेकिन मिट्टी में जलभराव न होने दें।


खाद: हर 15 दिन में एक बार गोबर खाद या वर्मी कंपोस्ट डालें। हर महीने सरसों खली और पोटाश युक्त खाद डालने से अधिक फूल आते हैं।


छंटाई: नियमित रूप से हल्की छंटाई करने से ज्यादा फूल लगते हैं।


3. रंगून क्रीपर (Rangoon Creeper)


धूप: पूरी धूप में रखें, यह छायादार जगह में अच्छे फूल नहीं देता।


पानी: गर्मी में रोज और सर्दियों में 2-3 दिन में एक बार पानी दें।


खाद: हर महीने गोबर की खाद और बोन मील डालें।


छंटाई: बेल को समय-समय पर काटकर आकार दें, ताकि यह घनी और फूलों से भरपूर बनी रहे।


4. अपराजिता (Butterfly Pea)


धूप: 5-6 घंटे की धूप जरूरी है।


पानी: हल्की नमी बनाए रखें, लेकिन मिट्टी में पानी जमा न हो।


खाद: हर 15 दिन में जैविक खाद (गाय का गोबर, सरसों खली) डालें।


छंटाई: नई शाखाओं को बढ़ावा देने के लिए बेल की हल्की छंटाई करें।


5. विंका (Sadabahar / Periwinkle)


धूप: सीधी धूप में रखें, इससे ज्यादा फूल आते हैं।


पानी: गर्मियों में रोज और सर्दियों में 2-3 दिन में एक बार पानी दें।


खाद: हर महीने जैविक खाद डालें। फॉस्फोरस और पोटाश युक्त खाद देने से अधिक फूल लगते हैं।


छंटाई: जब पौधा लंबा हो जाए, तो ऊपर से हल्की कटाई करें ताकि नए फूल आएं।


 सुझाव:-


गर्मी में अधिक पानी दें और सर्दियों में पानी कम करें।


कीट नियंत्रण: नीम तेल का स्प्रे करें ताकि कीड़े न लगें।


गमले का चुनाव: बड़े गमले में पौधा तेज़ी से बढ़ता है और ज्यादा फूल देता है।


जैविक खाद का उपयोग करें, जैसे गोबर खाद, वर्मी कंपोस्ट, हड्डी चूर्ण, और सरसों खली। साभार Facebook आशियाना ख्यालों का 

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दुर्लभ देशी सब्जियों के बीजों का संरक्षण

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 तमिलनाडु के मंगलम गांव के 32 वर्षीय किसान सलाई अरुण ने अपनी मेहनत और समर्पण से 300 से अधिक दुर्लभ देशी सब्जियों के बीजों का संरक्षण


किया है। बचपन से खेती में रुचि रखने वाले अरुण ने 2011 में जैविक कृषि वैज्ञानिक जी. नम्मालवर से प्रशिक्षण प्राप्त किया, जिससे उनका खेती के प्रति जुनून और बढ़ गया। 


अरुण ने देखा कि किसानों के पास देसी सब्जियों के बीजों की कमी है। इस समस्या के समाधान के लिए उन्होंने 2021 में देशभर की यात्रा करने का निर्णय लिया, हालांकि उस समय उनकी जमा पूंजी मात्र 300 रुपये थी। इसके बावजूद, उन्होंने लगभग 80,000 किलोमीटर की यात्रा की और 500 से अधिक किसानों से मिलकर 300 से अधिक दुर्लभ सब्जियों के बीज एकत्रित किए। 


अपने गांव में अरुण ने एक छोटे से बगीचे में इन लुप्तप्राय देशी फल-सब्जियों को उगाना शुरू किया। उन्होंने 'कार्पागथारू' नाम से एक बीज बैंक की स्थापना की, जिसके माध्यम से वे लौकी की 15, बीन्स की 20, टमाटर, मिर्च और तोरई की 10-10 किस्मों सहित कई अन्य सब्जियों के बीज उपलब्ध करा रहे हैं। 


अरुण की यह पहल न केवल जैविक खेती को बढ़ावा देती है, बल्कि देशी बीजों के संरक्षण में भी महत्वपूर्ण योगदान देती है। उनकी कहानी प्रेरणादायक है और यह दर्शाती है कि समर्पण और मेहनत से किसी भी लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। साभार Facebook wall

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Sunday, March 02, 2025

रजनीगंधा उगाने का तरीका

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 रजनीगंधा (Tuberose) उन फूलों में से एक हैं जो सबसे ज्यादा खुशबूदार होते हैं और इनकी खुशबू इतनी ज्यादा होती हैं कि एक बार ये घर पर उगने लगें तो पूरा घर महकने लगता हैं। रजनीगंधा को बहुत आसानी से गमले में उगा सकते हैं।


■ रजनीगंधा उगाने का तरीका


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रजनीगंधा के पौधे को आखिरी ठंड के बाद बसंत में लगाना चाहिए। भारत में मार्च से अप्रैल के बीच रजनीगंधा के पौधे का रोपण करना अच्छा रहता हैं। आप इसे उगाने के लिए इसके कंद (bulbs) किसी नर्सरी या फिर ऑनलाइन स्टोर से खरीद लीजिए। इसके कंद को लगाने के लिए वेल-ड्रेन मिट्टी चाहिए। अगर आपके पास नॉर्मल गार्डन की मिट्टी हैं तो आप उसे 60% लें और बाकी 40% में कोकोपीट, कम्पोस्ट और रेत मिलाएं। फिर इस मिट्टी को गमले में भरें और रजनीगंधा के कंद को मिट्टी में तीन से चार इंच की गहराई में डालें। ध्यान दें कंद का नुकीला सिरा ऊपर की ओर रहे। फिर इसे मिट्टी से पूरी तरह ढ़क दें और पानी डालकर गमले को ऐसी जगह रखें, जहां कम से कम 4-5 घंटे की धूप आती हो। हफ्ते में केवल दो-तीन बार ही पानी डालें, ज्यादा पानी डालने से कंद सड़कर खराब भी हो सकते हैं, लगभग 10 से 15 दिन में रजनीगंधा के कंद अंकुरित होने लगते हैं।


■ रजनीगंधा के पौधे की देखभाल कैसे करें :-


▪︎ रजनीगंधा लगाने के बाद उसकी मेंटेनेंस के लिए आपको सबसे पहले ये ध्यान रखना हैं कि इसे मीडियम पानी दें। न तो बहुत ज्यादा और न ही बहुत कम, इसकी मिट्टी सूखनी नहीं चाहिए। हां, जब ये जर्मिनेट हो जाए तो थोड़ा और पानी दे सकते हैं।


▪︎ रजनीगंधा के पौधे को ऐसी जगह पर रखें जहां कम से कम 4-5 घंटे की धूप पड़ती हो। रजनीगंधा 20 डिग्री सेल्सियस से नीचे का तापमान बर्दाश्त नहीं कर सकता और इसलिए इसे सर्दियों में न उगाएं। 


▪︎ इसमें ज्यादा पोटैशियम वाला कोई भी फर्टिलाइजर डाल सकते हैं। आप चाहें तो इसमें केले के छिलके का लिक्विड फर्टिलाइजर का भी इस्तेमाल कर सकते हैं।


▪︎ इसका ग्रोइंग सीजन करीब 4 महीने का रहता हैं और एक बार पौधा फूल देने लगे तो आप उन्हें काटकर अपने घर को डेकोरेट कर सकते हैं। इससे पौधे की ग्रोथ पर या आने वाले फूलों पर कोई असर नहीं होगा। पोस्ट पसंद आया हो तो Like करके इस पेज को Follow जरूर करें, धन्यवाद 


#rajnigandha #fragrantplants #flowerplants #plants #flowers #gardening #ashiyanakhayalonka साभार 

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Saturday, March 01, 2025

आम के पेड़ में आने लगे मंजर, कीट से बचाव के लिए अपनाएं ये उपाय

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 आम के पेड़ में आने लगे मंजर, कीट से बचाव के लिए अपनाएं ये उपाय


आम के पेड़ों में मंजर (बौर) लगने का समय आ गया है, लेकिन इसके साथ ही कीट और बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाता है। अगर सही समय पर रोकथाम नहीं की गई, तो उत्पादन प्रभावित हो सकता है। इसलिए किसान अभी से आम के मंजरों की सही देखभाल शुरू कर दें, ताकि फसल अच्छी हो और बाजार में ऊंचे दाम मिल सकें।


मंजर को नुकसान पहुंचाने वाले प्रमुख कीट और रोकथाम


फूलों की झुलसा (पाउडरी मिल्ड्यू)


लक्षण: फूलों पर सफेद पाउडर जैसा धब्बा


उपाय: 0.1% कार्बेन्डाजिम या 0.2% गंधक घोल का छिड़काव


माहू (एफिड्स)


लक्षण: मंजरों पर छोटे हरे-भूरे कीड़े जो रस चूसते हैं


उपाय: 1.5 मिली डाइमिथोएट 30% EC या 2 मिली इमिडाक्लोप्रिड प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव


फल छेदक कीट


लक्षण: छोटे कीड़े जो कच्चे फलों में छेद कर देते हैं


उपाय: 5% नीम तेल या 2 मिली साइपरमेथ्रिन प्रति लीटर पानी में छिड़काव


बंपर पैदावार के लिए जरूरी सुझाव


✔ संतुलित उर्वरक प्रबंधन: 1-1.5 किलो नाइट्रोजन, 500 ग्राम फॉस्फोरस, और 1 किलो पोटाश प्रति पेड़ दें।

✔ सिंचाई: मंजर आने के समय हल्की सिंचाई करें, ताकि फूल झड़ने न पाएं।

✔ फूलों की गिरावट रोकने के लिए: बोरॉन (0.5%) और नापथलिन एसिटिक एसिड (NAA) का छिड़काव करें।


अगर किसान इन उपायों को अपनाते हैं, तो आम की बंपर पैदावार हो सकती है और बाजार में अच्छी कीमत मिलने से शानदार मुनाफा भी होगा।

#mangotree #mangoseason #viral2025シ #viral2025post #devendrasinghdev #GardenDecor #viral2025 #gardening #gardeningtips #gardeninspiration #gardendesign #garden #gardenlife साभार देवेन्द्र सिंह देव Facebook 

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काले टमाटर का गुण

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 काले टमाटर के बारे में आपने शायद ही सुना होगा। पिछले 2 सालों से भारत में भी इसकी खेती शुरू हो गई हैं। ब्रिटेन के रास्ते भारत पहुंचा इस टमाटर की खेती भी लाल टमाटर के जैसे ही होती हैं। यह टमाटर सिर्फ अपने रंग के लिए विख्यात नहीं हैं बल्कि इसमें मौजूद गुणकारी तत्वों के कारण भी विख्यात हैं।

 

■ कई रंग बदलता हैं ये खास टमाटर


यह टमाटर आम टमाटर की तरह ही उगता हैं। सबसे पहले यह हरा होता हैं, उसके बाद लाल, फिर नीला होते-होते काला हो जाता हैं। जब आप इसे काटेंगे तो इसका गूदा लाल टमाटर की तरह लाल ही होता हैं। बस फर्क ये हैं कि इसमें पोषक तत्व अधिक मात्रा में पाये जाते हैं।


■ जानिए कौन-कौन से फायदे हैं इस काले टमाटर में


• ब्लड प्रेशर

काले टमाटर में भरपूर मात्रा में एंटीऑक्सीडेंट पाये जाते हैं और इसके साथ ही इसमें प्रोटीन, विटामिन ए, सी, मिनरल्स पाये जाते हैं जोकि आपके ब्लड प्रेशर को कंट्रोल रखने में मदद करते हैं।


• शुगर

अगर आप शुगर से लड़कर थक चुके हैं तो काला टमाटर आपके लिए रामबाण साबित हो सकता हैं। काला टमाटर खाने से आपका शुगर लेवल कंट्रोल रहता हैं।


• कैंसर

काले टमाटर में फ्री रेडिकल्स से लड़ने की क्षमता होती हैं, फ्री रेडिकल्स बहुत ज्यादा सक्रिय सेल्स होते हैं जो स्वस्थ सेल्स को नुकसान पहुंचाते हैं और इसी वजह से ये काला टमाटर कैंसर से लड़ने में भी फायदेमंद हैं।


• हार्ट अटैक

काला टमाटर खाने से आपके हार्ट अटैक के चांस भी कम हो जाते हैं क्योंकि इसमें एंथोसाइनिन पाया जाता हैं जो आपको हार्ट अटैक से बचाता हैं। नियमित रूप से काले टमाटर का सेवन आपको कभी दिल से जुड़ी बीमारियां नहीं होने देगा।


• आंखों की रोशनी

ये टमाटर आपकी आंखों के लिए बहुत लाभदायक हैं क्योंकि ये आपके शरीर में विटामिन A और विटामिन C की कमी को पूरा कर देता हैं। आपको पता ही होगा कि विटामिन A आंखों के लिए कितना फायदेमंद होता हैं।


• वजन

काले टमाटर में अच्छे कोलेस्ट्रॉल की मात्रा अधिक होती हैं जोकि वजन कम करने में मददगार साबित होती हैं। अगर आप भी अपने मोटापे से परेशान हैं तो इसे जरूर 


#blacktomato #tomato #healthylifestyle #plants #herbal #indiasgardening साभार Facebook 

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Friday, February 28, 2025

मालभोग केला : बिहार का गौरव एक परिचय

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 मालभोग केला : बिहार का गौरव - अगर आपने मालभोग का स्वाद नहीं चखा है, तो आपने वास्तव में केले का स्वाद नहीं चखा है!" भारत में लगभग 500 किस्में उगायी जाती हैं लेकिन एक ही किस्म का विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न नाम है। डॉ राजेन्द्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा के पास केला की 74 से ज्यादा प्रजातियाँ  संग्रहित हैं।

मालभोग केला सिल्क (एएबी) समूह का एक सदस्य  है ,इसमें मालभोग, रसथली, मोर्तमान, रासाबाले, पूवन (केरल) एवे अमृतपानी, आदि प्रजातियों के केला आते है । यह बिहार एवं बंगाल की एक मुख्य किस्म है जिसका अपने  विशिष्ट स्वाद एवं सुगन्ध की वजह से विश्व  में एक प्रमुख स्थान है। यह अधिक वर्षा को सहन कर सकती है। बिहार में यह प्रजाति पानामा विल्ट की वजह से लुप्त होने के कगार पर है। फल पकने पर डंठल से गिर जाता है। इसमें फलों के फटने की समस्या भी अक्सर देखी जाती है। मालभोग केला को प्राइड ऑफ बिहार भी कहते है , जहां ड्वार्फ केवेंडिश समूह के केला 50 से 60 रुपया दर्जन बिकता है वही मालभोग केला 150 से 200 रुपया दर्जन बिकता है।आज के तारीख में बिहार में  मालभोग प्रजाति के केले वैशाली एवं हाजीपुर के आसपास के  मात्र 15 से 20 गावों में सिमट कर रह गया है इसकी मुख्य वजह इसमें लगने वाली एक प्रमुख बीमारी जिसका नाम है फ्यूजेरियम विल्ट जिसका रोगकारक है फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम एफ एसपी क्यूबेंस  रेस  1 है।


1. वनस्पति विज्ञान विशेषताएँ

मालभोग केला सिल्क केले के समूह से संबंधित है। यह केले के AAA जीनोम समूह का हिस्सा है, जिसकी विशेषता ट्रिपलोइडी है, जिसका अर्थ है कि इसमें गुणसूत्रों के तीन सेट हैं। इस केले की किस्म को मुख्य रूप से इसके मीठे फल के लिए उगाया जाता है, जिसे ताजा खाया जाता है लेकिन इसे विभिन्न उत्पादों में भी संसाधित किया जा सकता है।


आभासी(छद्म) तना

मालभोग केले का छद्म तना मध्यम ऊंचाई का होता है, जो 2.5 से 3 मीटर तक होता है। इसका आकार मजबूत, बेलनाकार होता है, जो इसे कुछ पर्यावरणीय परिस्थितियों का सामना करने सक्षम होता है, हालांकि यह हवा से होने वाले नुकसान के प्रति मध्यम रूप से संवेदनशील है।


पत्तियाँ

केले का पौधा प्रमुख मध्य शिराओं के साथ बड़ी, हरी पत्तियाँ पैदा करता है। पत्तियों का लेमिना चौड़ा होता है, जो विकास के लिए कुशल प्रकाश संश्लेषण प्रदान करता है। हालाँकि, कई केले की किस्मों की तरह, मालभोग की पत्तियाँ सिगाटोका जैसे पर्ण रोगों के प्रति अतिसंवेदनशील होती हैं।


फूल और पुष्पक्रम

मालभोग केले का पुष्पक्रम लटकता हुआ होता है, जिसमें बड़े, लाल-बैंगनी रंग के सहपत्र होते हैं जो फल के विकासशील फलों  के हाथों की रक्षा करते हैं। फूल गुच्छों में व्यवस्थित होते हैं, जिसमें मादा फूल केले में विकसित होते हैं और नर फूल पुष्पक्रम के अंत में निकलते हैं।


2. कृषि संबंधी विशेषताएँ

मालभोग केले की खेती आम तौर पर उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय जलवायु के लिए उपयुक्त है।  यह अच्छी तरह से वितरित वर्षा और 20 डिग्री सेल्सियस से 38 डिग्री सेल्सियस के बीच के तापमान वाले क्षेत्रों में पनपता है। निम्नलिखित कृषि संबंधी विशेषताएं इस केले की किस्म की सफल वृद्धि को परिभाषित करती हैं....


मिट्टी की आवश्यकताएँ

मालभोग अच्छी तरह से सूखा, अच्छी जैविक सामग्री वाली उपजाऊ मिट्टी में सबसे अच्छा बढ़ता है। पर्याप्त नमी बनाए रखने वाली दोमट मिट्टी आदर्श होती है। इष्टतम विकास के लिए पीएच रेंज 6.5 और 7.5 के बीच है।


पानी की आवश्यकताएँ

इष्टतम विकास और फलों के विकास को सुनिश्चित करने के लिए नियमित रूप से पानी देना महत्वपूर्ण है, खासकर शुष्क अवधि के दौरान। हालाँकि, अत्यधिक पानी से जलभराव हो सकता है, जिससे जड़ सड़न और अन्य बीमारियाँ हो सकती हैं। मालभोग केला फ्यूजरियम ऑक्सिस्पोरम एफ.एसपी.क्यूबेंस रेस 1के प्रति बहुत ही संवेदनशील होने की वजह से लुप्तप्राय होने की कगार पर है। इसे पुनः स्थापित करने के लिए आवश्यक है की इसके टिश्यू कल्चर पौधे बना कर इसकी खेती की जाय एवं एक जगह पर केवल एक ही फसल ली जाय।


उर्वरक

केले का पौधा बहुत ज़्यादा खाद लेता है। संतुलित NPK (नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटेशियम) उर्वरकों के साथ जैविक खाद का उपयोग, जोरदार विकास और अधिक उपज को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक है।


रोपण और अंतराल

आमतौर पर, मालभोग केले के पौधों को 2.5 मीटर गुणा 2.5 मीटर के अंतराल पर लगाया जाता है ताकि पर्याप्त धूप और हवा का प्रवाह सुनिश्चित हो सके, जो रोग की घटनाओं को कम करने और स्वस्थ विकास को बढ़ावा देने में मदद करता है।


कीट और रोग संवेदनशीलता

हालाँकि मालभोग का बहुत महत्व है, लेकिन यह कई कीटों और बीमारियों के प्रति संवेदनशील है, जिसमें केले का घुन, नेमाटोड और फ्यूजेरियम विल्ट और बंची टॉप वायरस जैसी बीमारियाँ शामिल हैं। सफल खेती के लिए प्रभावी कीट और रोग प्रबंधन रणनीतियाँ, जैसे कि फसल चक्रण, जैविक मिट्टी संशोधन और जैव नियंत्रण एजेंटों का उपयोग, महत्वपूर्ण हैं।


3. फल की विशेषताएँ

मालभोग केला अपने ऑर्गेनोलेप्टिक गुणों के लिए जाना जाता है, जो स्थानीय और क्षेत्रीय बाजारों में इसकी लोकप्रियता के कुछ कारण हैं।


आकार और आकृति

फल मध्यम आकार का होता है, आमतौर पर 12-15 सेमी लंबा, थोड़ा घुमावदार, बेलनाकार आकार का। छिलका मोटा होता है और पूरी तरह पकने पर चमकीला पीला हो जाता है।


छिलका और गूदा

छिलका आसानी से हटाया जा सकता है, जिससे इसे ताजा खाने में आसानी होती है। गूदा मलाईदार, कोमल और मुलायम होता है, जिसमें थोड़ी दृढ़ता होती है जो इसकी बनावट को बढ़ाती है।


स्वाद और सुगंध

मालभोग केले की सबसे खास विशेषताओं में से एक इसकी सुखद सुगंध है। इसका स्वाद मीठा होता है, जिसमें भरपूर स्वाद होता है जो अम्लता और मिठास को संतुलित करता है, जिससे यह एक पसंदीदा मिठाई केला बन जाता है।


उपज

इष्टतम परिस्थितियों में मालभोग केले के पौधों की औसत उपज लगभग 30 से 40 टन प्रति हेक्टेयर होती है। प्रत्येक गुच्छा का वजन 15 से 20 किलोग्राम के बीच हो सकता है, जिसमें प्रति गुच्छा 8 से 12 केले होते हैं।


4. पोषण सामग्री

मालभोग केला एक पौष्टिक फल है जो कई आवश्यक विटामिन और खनिज प्रदान करता है। मुख्य पोषण घटकों में शामिल हैं:


कैलोरी: यह प्रति 100 ग्राम में लगभग 90 से 110 किलो कैलोरी प्रदान करता है, जो इसे ऊर्जा-घने भोजन बनाता है।


कार्बोहाइड्रेट: मालभोग केला कार्बोहाइड्रेट से भरपूर होता है, मुख्य रूप से फ्रुक्टोज, सुक्रोज और ग्लूकोज जैसी प्राकृतिक शर्करा के रूप में, जो त्वरित ऊर्जा बढ़ावा प्रदान करते हैं।


विटामिन: यह विटामिन का एक उत्कृष्ट स्रोत है, विशेष रूप से विटामिन सी, जो प्रतिरक्षा कार्य का समर्थन करता है, और विटामिन बी 6, जो मस्तिष्क के स्वास्थ्य और चयापचय में सहायता करता है।


खनिज: इसमें पोटेशियम जैसे आवश्यक खनिज होते हैं, जो हृदय स्वास्थ्य और रक्तचाप को नियंत्रित करने के लिए महत्वपूर्ण है, और मैग्नीशियम, जो मांसपेशियों के कार्य के लिए महत्वपूर्ण है।


आहार फाइबर: केला आहार फाइबर भी प्रदान करता है, जो पाचन स्वास्थ्य में योगदान देता है और नियमित मल त्याग को बनाए रखता है।


5. आर्थिक महत्व

मालभोग केला छोटे और बड़े पैमाने पर किसानों दोनों के लिए महत्वपूर्ण आर्थिक मूल्य रखता है। स्थानीय और शहरी दोनों बाजारों में इसकी उच्च मांग इसे एक आकर्षक फसल बनाती है।  किसान अक्सर इस किस्म को पसंद करते हैं क्योंकि:


बाजार की मांग: फल का अनूठा स्वाद, सुगंध और बनावट इसे अत्यधिक बिक्री योग्य बनाती है। यह सीधे उपभोग के लिए मांग में है, साथ ही चिप्स, प्यूरी और आटे जैसे प्रसंस्कृत केले के उत्पादों के उत्पादन में भी।


आय स्रोत: मालभोग केला अपने साल भर की खेती के चक्र के कारण किसानों के लिए एक स्थिर आय स्रोत प्रदान करता है, जिसमें रोपण शेड्यूल के आधार पर अलग-अलग फसलें संभव हैं।


मूल्य संवर्धन: ताजा खपत से परे, मालभोग केला खुद को केला-आधारित स्नैक्स और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों सहित मूल्य-वर्धित उत्पादों के लिए उधार देता है, जो इसकी आर्थिक क्षमता को और बढ़ाता है।


6. कटाई के बाद की हैंडलिंग

परिवहन और भंडारण के दौरान मालभोग केले की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए, कटाई के बाद सावधानीपूर्वक हैंडलिंग आवश्यक है:


भंडारण की स्थिति: केले आमतौर पर तब काटे जाते हैं जब वे परिपक्व होते हैं लेकिन अभी भी हरे होते हैं। उचित हैंडलिंग में उन्हें समय से पहले पकने या खराब होने से बचाने के लिए लगभग 13°C से 14°C के तापमान पर अच्छी तरह हवादार जगहों पर रखना शामिल है।


 पकने की प्रक्रिया: बाजार के उद्देश्यों के लिए, केले को अक्सर एथिलीन गैस या पारंपरिक तरीकों का उपयोग करके कृत्रिम रूप से पकाया जाता है ताकि पकने की गति को नियंत्रित किया जा सके, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि वे बाजार में बेहतरीन स्थिति में पहुँचें।


सारांश


मालभोग केला एक ऐसी किस्म है जिसमें बेहतरीन विशेषताएँ हैं जो इसे उपभोक्ताओं और किसानों दोनों के बीच लोकप्रिय बनाती हैं। इसका मीठा स्वाद, सुखद सुगंध और पोषण संबंधी लाभ इसकी व्यावसायिक व्यवहार्यता और विभिन्न बढ़ती परिस्थितियों के अनुकूल होने से पूरित होते हैं। हालांकि कीटों और बीमारियों के लिए अतिसंवेदनशील, उचित प्रबंधन अभ्यास स्वस्थ फसलों और इष्टतम पैदावार सुनिश्चित करने में मदद कर सकते हैं। जिन क्षेत्रों में इसकी खेती की जाती है, विशेष रूप से बिहार में, वहां के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने में इसकी भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता है।


"Malbhog Banana: The Pride of Bihar – If You Haven't Tasted Malbhog, You Haven't Truly Tasted a Banana"


सौजन्य :

प्रोफेसर (डॉ) एसके सिंह

सह निदेशक अनुसंधान

विभागाध्यक्ष,पोस्ट ग्रेजुएट डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट पैथोलॉजी एवं प्रधान अन्वेषक, अखिल भारतीय समन्वित फल अनुसंधान परियोजना, डॉ राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर बिहार साभार बिहार गौरव Facebook 


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मूंग की नई प्रजाति एमएच 1142

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 #हरियाणा प्रदेश की चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय में वैज्ञानिकों के द्वारा किसानों के लिए एक नई किस्म को विकसित किया गया है। इस किस्म में प्रथम रोड मोजेक पत्ता जोड़ी जैसे बीमारियों के प्रतिरोधी किस्म है और इस किस्म को लगाने के बाद 63 से 70 दिन में कटाई के लिए भी तैयार हो जाएगा।


🌿New variety of #moong MH #1142: चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय हिसार के कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा किसानों को मूंग की फसल में रोग से बचाव को बढ़ाने के लिए नई किस्म एमएच 1142 साभार Facebook 



 

को तैयार किया गया है। बता दें कि वैज्ञानिकों के द्वारा तैयार की गई इस किस्म को उत्तरी भारत के अलग-अलग स्थान पर बुवाई की जा सकती है और इसमें प्रति हेक्टेयर 20 क्विंटल का उत्पादन लिया जा सकता है।


🌿मूंग किस्म एमएच 1142 के बारे में आपकी जानकारी के लिए बता दें कि इस किस्म में पत्ता मरोड़, पीला मौजेक, और पत्ता झूरी जैसे विषाणु रोग के आलावा इस किस्म में सफेद चुर्णी जैसे फफूंद रोगों की प्रतिरोधी क्षमता भी है। जिसके चलते किसानों को अपनी फसल में अच्छा उत्पादन प्राप्त होगा।                  

इस किस्म का बीज Hau, HISAR के खरीफ मेले मे उपलब्ध होगा।

 #csshau #hisar #moong #मूग #mh1142

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Wednesday, February 26, 2025

HAU हिसार की famous सरसों वैरायटी RH1424

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 PUSA संस्थान दिल्ली में भी धूम मचा रही HAU हिसार की famous सरसों वैरायटी #RH1424 इसकी फली की लंबाई और दानों की संख्या किसी भी वैरायटी से compare कर लेना ये जीत में रहेगी 💯 KISAN VIKAS


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Tuesday, February 25, 2025

ठंडाई मसाला एक खास तरह का मसाला मिश्रण

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 ठंडाई मसाला एक खास तरह का मसाला मिश्रण


है, जिसका उपयोग ठंडाई बनाने के लिए किया जाता है। इसमें सूखे मेवे, मसाले और खुशबूदार तत्व होते हैं।


ठंडाई मसाला सामग्री:


बादाम – ¼ कप


काजू – 2 बड़े चम्मच


खरबूजे के बीज – 2 बड़े चम्मच


सौंफ – 2 बड़े चम्मच


काली मिर्च – 1 छोटा चम्मच


इलायची (हरी) – 5-6


खसखस – 1 बड़ा चम्मच


गुलाब की पंखुड़ियां – 2 बड़े चम्मच (सूखी या ताजी)


केसर – कुछ रेशे


चीनी – ¼ कप (या स्वादानुसार)


ठंडाई मसाला बनाने की विधि:


1. सभी सूखी सामग्री (बादाम, काजू, खरबूजे के बीज, सौंफ, खसखस, काली मिर्च, इलायची) को हल्का सा भून लें ताकि इनकी नमी निकल जाए।


2. अब इन्हें ठंडा करके मिक्सी में पीस लें।


3. इसमें गुलाब की पंखुड़ियां, केसर और चीनी डालकर फिर से पीसें।


4. आपका ठंडाई मसाला पाउडर तैयार है। इसे एयरटाइट कंटेनर में स्टोर करें।


इस मसाले को दूध में मिलाकर स्वादिष्ट ठंडाई बनाई जा सकती है। गर्मी के दिनों में यह शरीर को ठंडक और ऊर्जा देता है। साभार Facebook 

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Saturday, February 22, 2025

मैक्सिकन मैरीगोल्ड (टैगेट्स इरेक्टा) के साथ सब्जियों की अंतर-फसल

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यह एक आम कृषि पद्धति है जो पौधों और पर्यावरण को कई लाभ प्रदान करती है


1.कीट नियंत्रण :- मैक्सिकन मैरीगोल्ड कुछ कीटों को दूर भगाने की अपनी क्षमता के लिए जाना जाता है, जिसमें नेमाटोड और कीड़े शामिल हैं जो गोभी और अन्य फसलों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। मैरीगोल्ड की तेज गंध एफिड्स, व्हाइटफ्लाई और गोभी के पतंगों जैसे कीटों को रोक सकती है, जिससे रासायनिक कीटनाशकों की आवश्यकता कम हो जाती है।


2.नेमाटोड नियंत्रण:-  मैक्सिकन मैरीगोल्ड ऐसे यौगिक बनाता है जो रूट-नॉट नेमाटोड के लिए विषाक्त होते हैं, जो गोभी सहित कई सब्जी फसलों के लिए हानिकारक होते हैं। अंतर-फसल द्वारा, मैरीगोल्ड मिट्टी में इन नेमाटोड की आबादी को कम करने में मदद कर सकता है।


3.जैव विविधता-  अंतर-फसल से खेत में जैव विविधता बढ़ती है, जिससे अधिक संतुलित पारिस्थितिकी तंत्र बनता है। यह बीमारियों और कीटों के प्रसार को कम करने में मदद कर सकता है, क्योंकि विविधतापूर्ण रोपण वातावरण में उनके तेजी से फैलने की संभावना कम होती है।


 4. मृदा स्वास्थ्य:- मैरीगोल्ड्स जब विघटित होते हैं तो कार्बनिक पदार्थ जोड़कर मृदा स्वास्थ्य को बेहतर बनाते हैं. उनके पास एक गहरी जड़ प्रणाली भी होती है जो संकुचित मिट्टी को तोड़ने में मदद कर सकती है, जिससे मिट्टी की संरचना और पानी की घुसपैठ में सुधार होता है. 


5. स्थान का उपयोग:-  अंतर-फसल लगाने से स्थान का अधिक कुशल उपयोग होता है. जब गोभी बढ़ती है, तो मैरीगोल्ड पंक्तियों के बीच की जगह पर कब्जा कर सकता है, जिससे सूरज की रोशनी और मिट्टी के पोषक तत्वों का उपयोग होता है जो अन्यथा अप्रयुक्त हो सकते हैं. 


6:- सौंदर्य मूल्य:- मैक्सिकन मैरीगोल्ड में चमकीले, आकर्षक फूल होते हैं जो सब्जी के बगीचे या खेत में सौंदर्य मूल्य जोड़ते हैं. यह छोटे पैमाने के या शौकिया किसानों के लिए विशेष रूप से फायदेमंद हो सकता है जो अपने भूखंडों की उपस्थिति को महत्व देते हैं. 


7:- साथी रोपण के लाभ:- कुछ पौधे, जब एक साथ उगाए जाते हैं, तो एक दूसरे के विकास या स्वाद को बढ़ाते हैं. जबकि इस संबंध में गोभी और मैक्सिकन मैरीगोल्ड के बीच विशिष्ट बातचीत अच्छी तरह से प्रलेखित नहीं है, साथी रोपण अक्सर ऐसे सहक्रियात्मक प्रभावों की ओर ले जाता है.


 8.खरपतवार दमन:- गेंदे के घने पत्ते मिट्टी को छाया प्रदान करके और संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा करके खरपतवारों को दबाने में मदद करते हैं, जिससे हाथ से निराई या शाकनाशियों की आवश्यकता कम हो जाती है। #चलो मिलकर बढ़ें

साभार पिंटो पहाड़ी Facebook wall


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माइक्रो और मैक्रो न्यूट्रिएंट्स: परिभाषा और महत्व

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मैक्रो न्यूट्रिएंट्स वे पोषक तत्व होते हैं जो पौधों को अधिक मात्रा में चाहिए। इनमें नाइट्रोजन 👎, फॉस्फोरस (P), पोटेशियम (K), सल्फर (S), कैल्शियम (Ca), और मैग्नीशियम (Mg) शामिल हैं।


माइक्रो न्यूट्रिएंट्स वे पोषक तत्व होते हैं जो पौधों को कम मात्रा में चाहिए लेकिन उनकी अनुपस्थिति या कमी से फसल पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इनमें जिंक (Zn), आयरन (Fe), मैंगनीज (Mn), कॉपर (Cu), बोरोन (B), मोलिब्डेनम (Mo), और क्लोरीन (Cl) आते हैं।


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मुख्य फसलों में पोषण की मात्रा और देने का सही समय


1. गन्ना (Sugarcane)


मैक्रो न्यूट्रिएंट्स:


नाइट्रोजन 👎 – 150-200 kg/हेक्टेयर (तीन भागों में: रोपाई के 30, 60 और 90 दिन बाद)


फॉस्फोरस (P) – 60-80 kg/हेक्टेयर (रोपाई के समय)


पोटेशियम (K) – 100-120 kg/हेक्टेयर (रोपाई और बढ़वार के समय)


सल्फर (S) – 30-40 kg/हेक्टेयर


माइक्रो न्यूट्रिएंट्स:


जिंक (Zn) – 25 kg ZnSO₄/हेक्टेयर (रोपाई के समय)


बोरोन (B) – 1.5-2 kg/हेक्टेयर (स्प्रे द्वारा)


कैसे दें?


नाइट्रोजन को यूरिया या DAP के रूप में दें।


फॉस्फोरस और पोटेशियम को बेसल डोज़ में डालें।


जिंक और बोरोन को फोलियर स्प्रे करें।


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2. गेहूं (Wheat)


मैक्रो न्यूट्रिएंट्स:


नाइट्रोजन 👎 – 120-150 kg/हेक्टेयर (तीन भागों में: बुवाई के समय, 20-25 दिन बाद, और तीलवा अवस्था पर)


फॉस्फोरस (P) – 50-60 kg/हेक्टेयर (बेसल डोज़ में)


पोटेशियम (K) – 40-50 kg/हेक्टेयर (बेसल डोज़ में)


सल्फर (S) – 20-30 kg/हेक्टेयर


माइक्रो न्यूट्रिएंट्स:


जिंक (Zn) – 25 kg ZnSO₄/हेक्टेयर


आयरन (Fe) और मैंगनीज (Mn) – 0.5% घोल स्प्रे करें (50-55 दिन पर)


कैसे दें?


यूरिया (46% N) या DAP (18-46-0) से नाइट्रोजन और फॉस्फोरस दें।


मॉप (MOP) या SOP से पोटाश दें।


फोलियर स्प्रे से जिंक और आयरन दें।


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3. धान (Paddy)


मैक्रो न्यूट्रिएंट्स:


नाइट्रोजन 👎 – 100-150 kg/हेक्टेयर (तीन बार: रोपाई, 30 दिन बाद, और पैनिकल इनीशिएशन स्टेज पर)


फॉस्फोरस (P) – 50-60 kg/हेक्टेयर (बेसल डोज़ में)


पोटेशियम (K) – 60-80 kg/हेक्टेयर (दो बार: बेसल और फ्लावरिंग स्टेज पर)


माइक्रो न्यूट्रिएंट्स:


जिंक (Zn) – 25 kg ZnSO₄/हेक्टेयर (रोपाई के 10-15 दिन बाद स्प्रे करें)


बोरोन (B) – 2 kg/हेक्टेयर


आयरन (Fe) – 0.5% स्प्रे करें


कैसे दें?


DAP और MOP को बेसल डोज़ में दें।


जिंक सल्फेट और आयरन को फोलियर स्प्रे करें।


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4. सरसों (Mustard)


मैक्रो न्यूट्रिएंट्स:


नाइट्रोजन 👎 – 80-100 kg/हेक्टेयर (बुवाई और फूल आने से पहले)


फॉस्फोरस (P) – 40-50 kg/हेक्टेयर (बेसल डोज़)


पोटेशियम (K) – 40-50 kg/हेक्टेयर (बेसल डोज़)


माइक्रो न्यूट्रिएंट्स:


बोरोन (B) – 1.5 kg/हेक्टेयर (बुवाई के समय या 0.2% स्प्रे फूल आने से पहले)


जिंक (Zn) – 25 kg ZnSO₄/हेक्टेयर


कैसे दें?


डीएपी और पोटाश को बेसल डोज़ में दें।


बोरोन को फूल आने से पहले स्प्रे करें।


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वैज्ञानिक तरीका और सुझाव


1. सॉयल टेस्टिंग – मिट्टी की जांच के अनुसार उर्वरक की मात्रा तय करें।


2. संतुलित उर्वरक प्रयोग – मैक्रो और माइक्रो न्यूट्रिएंट्स को सही अनुपात में दें।


3. फोलियर स्प्रे – माइक्रो न्यूट्रिएंट्स की कमी होने पर स्प्रे करना प्रभावी होता है।


4. ऑर्गेनिक न्यूट्रिएंट्स – जैविक खाद जैसे नैनो यूरिया, समुद्री शैवाल (Seaweed), और ऑर्थो सिलिसिक एसिड का प्रयोग करें।


5. ड्रिप फर्टिगेशन – गन्ने और सब्जियों में पोषक तत्वों की सही आपूर्ति के लिए ड्रिप सिस्टम का उपयोग करें।


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यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सही मात्रा में पोषण देने का तरीका है जिससे उपज बढ़ेगी और मिट्टी की सेहत भी बनी रहेगी।

जय जवान जय किसान साभार Facebook 

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Thursday, January 23, 2025

पत्तियों में पोषक तत्वों की कमी के लक्षण.

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 पौधों में पोषक तत्वों की कमी अक्सर सबसे पहले पत्तियों में देखी जाती है, जिससे यह पौधों के समग्र स्वास्थ्य का एक महत्वपूर्ण संकेतक बन जाता है।  समय पर इन संकेतों को पहचानने से किसानों और बागवानों को पौधों की इष्टतम वृद्धि और उपज सुनिश्चित करने के लिए समस्याओं को प्रभावी ढंग से हल करने में मदद मिल सकती है।


 1. नाइट्रोजन की कमी

 लक्षण: पुरानी पत्तियों का पीला पड़ना (क्लोरोसिस), दिशाओं से शुरू होकर केंद्र की ओर बढ़ना।  साथ ही विकास भी रुक सकता है.

 कारण: पौधों में नाइट्रोजन गतिशील है, इसलिए कमी सबसे पहले पुरानी पत्तियों में दिखाई देती है क्योंकि पोषक तत्व युवा ऊतकों में स्थानांतरित हो जाते हैं।


 2. फास्फोरस की कमी

 लक्षण: एंथोसायनिन के निर्माण के कारण पुरानी पत्तियों का गहरा हरा या बैंगनी रंग, जड़ की खराब वृद्धि और धीमी वृद्धि।

 कारण: अपर्याप्त फास्फोरस पौधों में ऊर्जा हस्तांतरण को प्रभावित करता है, विशेषकर विकास के प्रारंभिक चरण में।


 3. पोटैशियम की कमी

 लक्षण: पुरानी पत्तियों पर पत्ती के किनारों का भूरापन या जलन (मारिजुआना जलन), खुजली, और नसों के बीच पीलापन (इंटरविनल क्लोरोसिस)।

 कारण: पोटेशियम पानी के उपयोग और एंजाइम गतिविधि को विनियमित करने में मदद करता है, इस प्रकार कमी के परिणामस्वरूप सूखे और कमजोर पौधों की सहनशीलता कम हो जाती है।


 4. मैग्नीशियम की कमी

 लक्षण: पुरानी पत्तियों में अंतःशिरा क्लोरोसिस, पत्तियों की नसें हरी जबकि शेष पत्तियां पीली हो जाती हैं।  गंभीर मामलों में पत्तियों की कमी देखी जा सकती है।

 कारण: मैग्नीशियम क्लोरोफिल का केंद्र है, इसलिए इसकी कमी प्रकाश संश्लेषण को प्रभावित करती है।


 5. आयरन की कमी

 -लक्षण: नई पत्तियों में अंतःशिरा क्लोरोसिस, कठोर परिस्थितियों में सभी पत्तियां पीली हो जाती हैं।

 कारण: पौधों में मैग्नीशियम के विरुद्ध आयरन अस्थिर होता है, इसलिए लक्षण सबसे पहले नई वृद्धि में दिखाई देते हैं।


 6. कैल्शियम की कमी

 लक्षण: क्षतिग्रस्त, विकृत, या अधिक बढ़ी हुई पत्तियाँ, अक्सर नई पत्तियों पर भूरे धब्बे और गोली के निशान।

 कारण: कैल्शियम कोशिका भित्ति की मजबूती और फ्रैक्चर स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण है, और इसकी कमी से संरचनात्मक कमजोरी होती है।


 7. जिंक की कमी

 लक्षण: युवा पत्तियों पर अंतःशिरा क्लोरोसिस के साथ छोटी, आकारहीन पत्तियां, अक्सर फूल या छोटी इंटरनोड के साथ।

 कारण: जिंक पौधों में एंजाइम गतिविधि और हार्मोन विनियमन के लिए महत्वपूर्ण है।


 8. सल्फर की कमी

 लक्षण: नई पत्तियों का समान पीलापन (नाइट्रोजन की कमी के समान लेकिन शुरुआत में नई पत्तियों को प्रभावित करना)।

 कारण: सल्फर पौधे पर आधारित है और प्रोटीन संरचना के लिए आवश्यक है। Sabhar facebook 

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Monday, January 20, 2025

मूली की खेती

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 मूली की खेती


के लिए दोमट मिट्टी या बलुई दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी जाती है। मिट्टी का pH स्तर 6.0 से 7.5 के बीच होना चाहिए। यह फसल अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी में बेहतर उत्पादन देती है, जबकि भारी और जलजमाव वाली मिट्टी में जड़ें ठीक से नहीं बढ़ पातीं।

साभार फेस बुक

#radishfarming #krishijagran

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Friday, November 29, 2024

खास या खस की खेती

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 #खास  खस एक बारहमासी कम  सिचित  जमीन  पर  उगने वाली  घास है । प्राचीन  काल  में बंजर  भूमि  और   खेतों  की  मेंड़  और  बंधों  मे  लगायी  जाती  थी।  एक बार  लगा  देने  के बाद  सालोंसाल  उगती  रहती  थी। जिसकी अब  खेती इत्र में इस्तेमाल होने वाले व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण आवश्यक तेल के उत्पादन के लिए की जाती है।  खस  में  सुगंधित  तेल  इसकी  जडों  में  होता है।  ऊपर  की  हरी  घास  सूख  जाने  पर  जमीन  अंदर  जड़ें  सुरक्षित  रहती  है।  इन्ही  से  आसवन  विधि से  सुगंधित  तेल  निकाला  जाता  है। 


खस में ठंडक देने वाले गुण होते हैं और इसका उपयोग गर्मियों के दौरान शर्बत या स्वादिष्ट पेय तैयार करने के लिए किया जाता है। यह जड़ी बूटी ओमेगा फैटी एसिड, विटामिन, प्रोटीन, खनिज और आहार फाइबर का एक अच्छा स्रोत है।


खस पाचन में सुधार करने में मदद करता है क्योंकि इसमें आहारीय फाइबर की मात्रा अधिक होती है। खस की जड़ का काढ़ा कुछ दिनों तक लेने से इसके सूजनरोधी गुण के कारण आमवाती दर्द और जकड़न को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। खस चूर्ण का सेवन इसके एंटीडायबिटिक गुण के कारण इंसुलिन स्राव को बढ़ाकर मधुमेह को प्रबंधित करने में मदद करता है।


खस अपने एंटीऑक्सीडेंट गुण के कारण त्वचा के लिए भी अच्छा है। खास तेल का सामयिक अनुप्रयोग त्वचा पर मुँहासे के निशान और निशान को ठीक करने में मदद करता है। यह तैलीय त्वचा को प्रबंधित करने में भी मदद करता है और खिंचाव के निशान के गठन को रोकता है। इसके अलावा, खस तेल का उपयोग कीट नाशक और कीट विकर्षक के रूप में भी किया जा सकता है। आयुर्वेद के अनुसार, खस आवश्यक तेल को खोपड़ी और बालों पर लगाने से बालों के झड़ने को नियंत्रित करने में मदद मिलती है और बालों के विकास को बढ़ावा मिलता है। ऐसा इसके स्निग्धा (तैलीय) गुण के कारण होता है जो बालों से अत्यधिक रूखापन दूर करता है।


खांसी और सर्दी के दौरान खस से परहेज करने की सलाह दी जाती है क्योंकि इसके सीत (ठंडा) गुण के कारण श्वसन मार्ग में बलगम का निर्माण और संचय हो सकता है जिससे सांस लेने में कठिनाई हो सकती है। साभार फेस बुक वॉल

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Wednesday, July 10, 2024

फॉस्फोरस घुलनशील बैक्टीरिया (पीएसबी) मिट्टी में इस प्रकार काम करता है:

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 फॉस्फोरस घुलनशील बैक्टीरिया (पीएसबी) मिट्टी में इस प्रकार काम करता है:


1. पीएसबी मिट्टी और पौधों की जड़ों पर कब्जा कर लेता है।

2. पीएसबी कार्बनिक अम्ल (जैसे, ग्लूकोनिक एसिड, साइट्रिक एसिड) और एंजाइम (जैसे, फॉस्फेटेस) का उत्पादन करता है।

3. ये कार्बनिक अम्ल और एंजाइम अघुलनशील फॉस्फोरस यौगिकों (जैसे, ट्राईकैल्शियम फॉस्फेट, रॉक फॉस्फेट) को उपलब्ध रूपों (जैसे, ऑर्थोफॉस्फेट) में घुलनशील बनाते हैं।

4. घुलनशील फास्फोरस पौधों द्वारा ग्रहण किया जाता है, जिससे स्वस्थ वृद्धि और विकास को बढ़ावा मिलता है।

5. पीएसबी पौधों की वृद्धि को बढ़ावा देने वाले पदार्थों का भी उत्पादन करता है, जिससे पौधों की वृद्धि और मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है।


यहाँ एक सरल चित्र है:

```

पीएसबी -> कार्बनिक अम्ल और एंजाइम -> घुलनशील पी -> उपलब्ध पी -> पौधे का उपभोग -> स्वस्थ विकास

```

नोट: पीएसबी = फास्फोरस घुलनशील बैक्टीरिया, पी = फास्फोरस।


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Saturday, December 02, 2023

Irrigation Tips

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1. Use efficient irrigation systems: Consider using drip irrigation or micro-sprinklers instead of traditional overhead sprinklers. These systems deliver water directly to the plant roots, minimizing water loss through evaporation.


2. Schedule irrigation wisely: Water your crops during the early morning or late evening when temperatures are cooler and evaporation rates are lower. This helps to maximize water absorption by the plants and reduces water loss.


3. Monitor soil moisture: Regularly check the moisture levels in your soil to avoid over or under-watering. Use moisture sensors or simple techniques like sticking your finger into the soil to determine if it's time to irrigate.


4. Mulch your crops: Apply a layer of organic mulch around your plants to help retain soil moisture. Mulch acts as a barrier, reducing evaporation and weed growth, while also improving soil structure.


5. Implement water-saving techniques: Consider using techniques like rainwater harvesting, where you collect and store rainwater for irrigation purposes. Additionally, using water-efficient irrigation nozzles and adjusting irrigation schedules based on weather conditions can help conserve water.


6. Practice crop rotation and companion planting: By rotating crops and planting compatible species together, you can optimize water usage. Some plants have different water requirements, and by grouping them strategically, you can avoid overwatering certain areas.


7. Improve soil quality: Healthy soil retains water better. Enhance your soil's organic matter content by adding compost or organic fertilizers. This improves soil structure, allowing it to hold more water and reducing the need for frequent irrigation.


8. Monitor and repair leaks: Regularly inspect your irrigation system for leaks or damaged pipes. Even small leaks can result in significant water wastage over time, so fixing them promptly is necessary. 

~ Agricbusiness Media


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Thursday, August 31, 2023

आम की अंबिका एवं अरुणिकाअम्रपाली बौनी क़िस्म

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 आम की अं


बिका एवं अरुणिका दोनो गमले में लगाने योग्य किस्मे है अम्रपाली भी बौनी क़िस्म है लेकिन अरुणिका आम्रपाली की तुलना में 40% ज्यादा बौनी है
अंबिका और अरूणिका है आम की सबसे बौनी किस्म ।
इन्हें घर के किसी भी कोने में लगाकर आप प्रतिवर्ष 20 किलो तक आम उगा सकते हैं।
आवाज एक पहल
इंसान में बौनापन अभिशाप है पर आम के पौधों को बौना करने की कवायद चल रही है. अंबिका और अरूणिका वैज्ञानिकों के तकरीबन 30 साल की मेहनत के बाद आम की बोनी वैरायटी के रूप में विकसित की गई है। दरअसल आम के इन छोटी वैरायटी के कई फायदे हैं । इससे सघन वृक्षारोपण में कम स्थान में अधिक संख्या में पौधे लगने के कारण कुछ ही सालों में बहुत अधिक उपज मिलना संभव है।छोटे पौधों से फलों को तोड़ना आसान है और उनकी देखरेख में भी कम खर्च होता है।
.अभी तक आम्रपाली किस्म अपने छोटे आकार के लिए काफी प्रचलित हुई हैं लेकिन आम्रपाली के फल बाजार में आने में 30 वर्ष लग गये.इसके पौधे भी  अन्य किस्मों की तरह विशाल रूप धारण कर लेते हैं.
इसी दिशा में केंद्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान, लखनऊ में बौनी प्रजातियों के विकास के लिए शोध किया गया और अरूणिका एवं अम्बिका नाम की संकर किस्में विकसित की गई. अरूणिका अपनी माँ आम्रपाली से पौधों के आकार में लगभग 40 प्रतिशत छोटी है. लाल रंग के आकर्षक फलों के कारण बौना पेड़ और आकर्षक लगता है.
केंद्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डॉ राजन बताते हैं कि आम की किस्में बौनी तभी हो सकती हैं जब उन पर हर वर्ष फल आए. चौसा और लंगड़ा जैसी एक साल छोड़ कर फलने वाली किस्मों के पौधे बड़े आकार के होते हैं. नियमित फलन के कारण अम्बिका, अरुणिका और आम्रपाली जैसी किस्मों के पौधे छोटे आकार के रहते हैं. इनकी ख़ासियत यह भी है कि फलों के तोड़ने के बाद निकली हुई टहनियों में फूल का आ जाना. लंगड़ा, चौसा और दशहरी में फल तोड़ने के बाद निकली हुई टहनियों में फूल सामान्यतः एक वर्ष छोड़कर फल आते हैं.।
दक्षिण भारतीय किस्म नीलम, उत्तर भारत में अपने छोटे आकार के पौधों के लिए जानी जाती है. आम्रपाली में नीलम ने पिता का रोल अदा किया और इसी कारण आम्रपाली से अरूणिका में नियमित फलन और बौनेपन का गुण विद्यमान है. हर साल फल देने वाली बौनी किस्में सघन बागवानी के लिए उपयुक्त है. कम स्थान में अधिक संख्या में पौधे लगाकर ज्यादा फल उत्पादन आज बागवानी के क्षेत्र में एक सफल तकनीक के रूप में अपनाया जा रहा है.


आप इसके पौधे CISH रह्मानखेड़ा, लखनऊ से खरीद सकते है

अंबिका और अरूणिका है आम की सबसे बौनी किस्म ।


इन्हें घर के किसी भी कोने में लगाकर आप प्रतिवर्ष 20 किलो तक आम उगा सकते हैं।


इंसान में बौनापन अभिशाप है पर आम के पौधों को बौना करने की कवायद चल रही है. अंबिका और अरूणिका वैज्ञानिकों के तकरीबन 30 साल की मेहनत के बाद आम की बोनी वैरायटी के रूप में विकसित की गई है। दरअसल आम के इन छोटी वैरायटी के कई फायदे हैं । इससे सघन वृक्षारोपण में कम स्थान में अधिक संख्या में पौधे लगने के कारण कुछ ही सालों में बहुत अधिक उपज मिलना संभव है।छोटे पौधों से फलों को तोड़ना आसान है और उनकी देखरेख में भी कम खर्च होता है।


.अभी तक आम्रपाली किस्म अपने छोटे आकार के लिए काफी प्रचलित हुई हैं लेकिन आम्रपाली के फल बाजार में आने में 30 वर्ष लग गये.इसके पौधे भी  अन्य किस्मों की तरह विशाल रूप धारण कर लेते हैं.


इसी दिशा में केंद्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान, लखनऊ में बौनी प्रजातियों के विकास के लिए शोध किया गया और अरूणिका एवं अम्बिका नाम की संकर किस्में विकसित की गई. अरूणिका अपनी माँ आम्रपाली से पौधों के आकार में लगभग 40 प्रतिशत छोटी है. लाल रंग के आकर्षक फलों के कारण बौना पेड़ और आकर्षक लगता है.


केंद्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डॉ राजन बताते हैं कि आम की किस्में बौनी तभी हो सकती हैं जब उन पर हर वर्ष फल आए. चौसा और लंगड़ा जैसी एक साल छोड़ कर फलने वाली किस्मों के पौधे बड़े आकार के होते हैं. नियमित फलन के कारण अम्बिका, अरुणिका और आम्रपाली जैसी किस्मों के पौधे छोटे आकार के रहते हैं. इनकी ख़ासियत यह भी है कि फलों के तोड़ने के बाद निकली हुई टहनियों में फूल का आ जाना. लंगड़ा, चौसा और दशहरी में फल तोड़ने के बाद निकली हुई टहनियों में फूल सामान्यतः एक वर्ष छोड़कर फल आते हैं.।


दक्षिण भारतीय किस्म नीलम, उत्तर भारत में अपने छोटे आकार के पौधों के लिए जानी जाती है. आम्रपाली में नीलम ने पिता का रोल अदा किया और इसी कारण आम्रपाली से अरूणिका में नियमित फलन और बौनेपन का गुण विद्यमान है. हर साल फल देने वाली बौनी किस्में सघन बागवानी के लिए उपयुक्त है. कम स्थान में अधिक संख्या में पौधे लगाकर ज्यादा फल उत्पादन आज बागवानी के क्षेत्र में एक सफल तकनीक के रूप में अपनाया जा रहा है.





खेती की अवधारणा पिन्टु मीना पहाड़ी


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कीड़ो की दुनिया

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आज आपका परिचय होगा एक और कीट "सफ़ेद मक्खी" से जिसकी वजह से पौधों में दोहरा नुकसान होता है स्वयं रस चूसकर तो पौधे को नष्ट करता ही है साथ में वायरस जनित बीमारियों को फैलाने में इसका मुख्य योगदान होता है। सफ़ेद मक्खियाँ एक प्रकार के की छोटी रस-चूसने वाली कीट हैं। सफ़ेद मख्खी  अपने छोटे आकार, सफेद या हल्के पीले रंग और तेजी से प्रजनन करने की क्षमता के लिए जानी जाती है। इसकी कई प्रजातियां है जिनके होस्ट प्लांट की प्राथमिकताएं अलग अलग है।  कृषि और बागवानी फसलों का एक मुख्य कीट है। सफ़ेद मक्खियाँ सब्जियों, फलों, सजावटी पौधों और फसलों सहित पौधे की अनेकों प्रजातियों को प्रभावित करती है। कपास, भिंडी, गुड़हल, मिर्च, टमाटर, बेंगन, गुलाब, कद्दू वर्गीय सब्जियां, पपीता और सजावटी फूलों के पौधे सम्मिलित है। 


नुकसान का तरीका : सफ़ेद मक्खियाँ पौधों के फ्लोएम ऊतक में छेद करके और रस निकालकर उन्हें खाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप पौधों की बढ़वार रुक जाती है।  सफ़ेद मख्खी का भारी संक्रमण होने पर पोषक तत्वों और ऊर्जा की हानि के कारण पौधों का विकास रुक जाता है। संक्रमित पौधों में अक्सर पोषक तत्वों की कमी और सफेद मक्खी द्वारा लाए गए पौधों के वायरस के संचरण के कारण पीलापन, मुरझाना और पत्तियां गिरने के लक्षण दिखाई देते हैं। वायरस जनित बीमारियों को फैलाने में इसका मुख्य योगदान रहता है, मोजेक, लीफ कर्ल, रिंग स्पॉट जैसे वायरस जनित रोग इसी से फैलते है। समय पर इस कीट का नियंत्रण वायरस जनित बिमारियों से पौधों को बचाये रखता है। इसके अलावा इनके द्वारा निकाला गया मल हनी ड्यू होता है जिस पर सूटी मोल्ड (एक प्रकार की काली फफूंद) आती है और ये काली फफूंद पत्तियों को ढक कर प्रकाश संश्लेषण को प्रभावित करती है। 


जीवन चक्र : सफ़ेद मक्खियों का जीवन चक्र छोटा होता है जिसमें कई चरण होते हैं। मख्खियां आमतौर पर पत्तियों की निचली सतह पर गोलाकार अंडे देती है जो शुरू में पीले होते हैं लेकिन विकसित होते-होते गहरे हो जाते हैं। अंडे सेने के बाद, निम्फ, जिन्हें अक्सर क्रॉलर कहा जाता है, भोजन करने के लिए पहले इधर-उधर घूमते हैं। जैसे-जैसे वे बढ़ते हैं, वे कई चरणों से गुजरते हैं। निम्फ अंततः प्यूपा में बदल जाते हैं, जिसके दौरान वे कम गतिशील होकर स्थिर रहते हैं और अक्सर एक सुरक्षात्मक मोमी पदार्थ से ढके हुए दिखाई देते हैं। विकास पूरा होने पर वयस्क सफेद मक्खियाँ प्यूपा से निकलती हैं जो अपनी अगली पीढ़ी के लिए प्रजनन करती है। 


नियंत्रण के उपाय : सफ़ेद मख्खी द्वारा विभिन्न कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोध विक्सित होते हुए देखा गया है। इसका मुख्य कारण इनका छोटा जीवन चक्र और अनियंत्रित कीटनाशियों का उपयोग, अधिक मात्रा में कीटनाशकों का उपयोग जैसे कारण मुख्य है। इसके नियंत्रण और होने वाले दुष्प्रभावों को कम करने के लिए निश्चित रूप से इंटीग्रेटेड पेस्ट मैनेजमेंट की विधियों को अपनाये जाने की आवश्यकता है। इस कीट के प्रभाव को इस बात से देखा जा सकता है की मिर्च और कपास उगाने वाले किसान इसके नियंत्रण के लिए सर्वाधिक कीटनाशकों का उपयोग करते है। 


1. कृषिगत उपाय : नियमित रूप से निगरानी करें, पौधों में हवा और प्रकाश का संचार सही रहे इसके लिए फसल को ज्यादा घना नहीं लगाएं, सफ़ेद मख्खी के लिए अनुकूल वातावरण को कम करने के लिए पौधों को उचित स्थान दें और उनकी छँटाई करें। प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग करें। 


2. भौतिक उपाय : नर्सरी में पौधों को बचाव के लिए नेट का उपयोग करें। 


3. जैविक नियंत्रण: सफ़ेद मख्खी की जनसँख्या को नियंत्रित करने में शिकारी कीटो का बहुत बड़ा योगदान है। सफ़ेद मख्खी के प्राकृतिक शिकारी कीटो जैसे लेडीबग्स, लेसविंग्स, परजीवी ततैया और शिकारी बग्स को संरक्षित करें। 


4. चिपचिपे ट्रैप का प्रयोग : पीले चिपचिपे ट्रैप्स सफ़ेद मख्खी की संख्या को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। खेत में इनका प्रयोग मख्खियों की संख्या को नियंत्रित रखता है। 


5. रासायनिक नियंत्रण : जैसा की पहले भी लिखा है यह कीट कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोध विकसित करने की क्षमता रखता है। इसके लिए जैविक और रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग बदल बदल कर किया जाना चाहिए। कीटनाशक और पानी की मात्रा हमेशा अनुशंसित दर पर ली जानी चाहिए। छिड़काव के अंतराल का पालन आवश्यक रूप से किया जाना चाहिए। अंतर्प्रवाही या सिस्टमिक कीटनाशी का उपयोग लाभकारी रहता है।  


नोट : मिर्च, टमाटर, पपीता जैसे पौधों में सफ़ेद मख्खी का आक्रमण नर्सरी अवस्था में ही हो जाता है और आप वायरस ग्रसित पौधा ही अपने खेत में लगाते है। यदि आप नर्सरी में सही तरीके से इसको नियंत्रित कर लेते है तो खेत में बिमारी आने की सम्भावना को बहुत हद तक कम कर देते है। 


#अथ_श्री

© Crazy gardener

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गाजर की खेती से लाखों रुपए बीघा,गाजर खेती बीज से बिक्री तक पूरा ज्ञान, गाजर की खेती, carrot farming

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गाजर एक महत्वपूर्ण जड़वाली सब्जी की फ़सल है I गाजर की खेती पूरे भारतवर्ष में की जाती है गाजर को कच्चा एवं पकाकर दोनों ही तरह से लोग प्रयोग करते है गाजर में कैरोटीन एवं विटामिन ए पाया जाता है जो कि मनुष्य के शरीर के लिए बहुत ही लाभदायक है नारंगी रंग की गाजर में कैरोटीन की मात्रा अधिक पाई जाती है गाजर की हरी पत्तियो में बहुत ज्यादा पोषक तत्व पाये जाते है जैसे कि प्रोटीन, मिनिरल्स एवं विटामिन्स  आदि जो कि जानवरो को खिलाने पर लाभ पहुचाते है गाजर की हरी पत्तियां मुर्गियों के चारा बनाने में काम आती है गाजर मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, असाम, कर्नाटक, आंध्रा प्रदेश, पंजाब एवं हरियाणा में उगाई जाती हैI


जलवायु


गाजर मूलत ठंडी जलवायु कि फसल है इसका बीज 7.5 से 28 डिग्री सेल्सियस तापमान पर सफलतापूर्वक उग सकता है जड़ों कि बृद्धि और उनका रंग तापमान से बहुत अधिक प्रभावित होता है 15-20 डिग्री तापमान पर जड़ों का आकार छोटा होता है परन्तु रंग सर्वोत्तम होता है विभिन्न किस्मों पर तापमान का प्रभाव - भिन्न भिन्न होता है यूरोपियन किस्मों 4-6 सप्ताह तक 4.8 -10 डिग्री से 0 ग्रेड तापमान को जड़ बनते समय चाहिए I 


भूमि 


गाजर की खेती दोमट भूमि में अच्छी होती है. बुआई के समय खेत की मिट्टी अच्छी तरह भुरभुरी होनी चाहिए जिससे जड़ें अच्छी बनती है  भूमि में पानी का निकास होना अतिआवश्यक हैI


भूमि कि तैयारी


शुरू में खेत को दो बार विक्ट्री हल से जोतना चाहिए , इसके 3-4 जुताइयाँ देशी हल से करें प्रत्येक जुताई के उपरांत पाटा अवश्य लगाएं , ताकि मिटटी भुरभुरी हो जाए 30 सेमी 0 गहराई तक भुरभुरी होना चाहिए 


उत्तम क़िस्में


पूसा केसर


यह लाल रंग की उत्तम गाजर की क़िस्म है. पत्तियाँ छोटी एवं जड़ें लम्बी, आकर्षक लाल रंग केन्द्रीय भाग व संकरा होता है. फ़सल 90-110 दिन में तैयार हो जाती है. पैदावार : 300-350 क्विंटल प्रति हेक्टेअर होती है


 


पूसा यमदाग्नि


यह प्रजाति आई० ए० आर० आई० के क्षेत्रीय केन्द्र कटराइन द्धारा विकसित की गयी है. इसकी पैदावार 150-200 क्विंटल प्रति हेक्टेअर होती है. 


नैन्टस


इस क़िस्म की जडें बेलनाकार नांरगी रंग की होती है. जड़ के अन्दर का केन्द्रीय भाग मुलायम, मीठा और सुवासयुक्त होता है. 110-112 दिन में तैयार होती है. पैदावार 100-125 क्विंटल प्रति हेक्टेअर होती है. 


बुआई का समय


मैदानी इलाकों में एशियाई क़िस्मों की बुआई अगस्त से अक्टूबर तक और यूरोपियन क़िस्मों की बुआई अक्टूबर से नवम्बर से करते हैं.


बीज की मात्रा


एक हेक्टेअर क्षेत्र के लिए 6-8 कि०ग्रा० बीज की आवश्यकता पड़ती है. 


बुआई और दूरी


इसकी बुआई या तो छोटी-छोटी समतल क्यारियों में या 30-40 से०मी० की दूरी पर मेंड पर करते हैं. 


निराई-गुड़ाई व सिंचाई


बुआई के समय खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए. पहली सिंचाई बीज उगने के बाद करें. शुरू में 8-10 दिन के अन्तर पर तथा बाद के 12-15 दिन के अन्तर पर सिंचाई करें.


 


खाद और उर्वरक


एक हेक्टेअर खेत में लगभग 25-30 टन सही गोबर की खाद अन्तिम जुताई के समय तथा 30 कि०ग्रा० नाइट्रोजन तथा 30 कि०ग्रा० पौटाश प्रति हेक्टेअर की दर से बुआई के समय डालें. बुआई के 5-6 सप्ताह बाद 30 कि०ग्रा० नाइट्रोजन को टॉप ड्रेसिंग के रूप मे डालें.


सिंचाई 

बुवाई के बाद नाली में पहली सिंचाई करनी चाहिए जिससे मेंड़ों में नमी बनी रहे बाद में 8 से 10 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिएI गर्मियों में 4 से 5 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिएI खेत को कभी सूखना नहीं चाहिए नहीं तो पैदावार कम हो जाती हैI 


खरपतवार नियंत्रण 


गाजर कि फसल के साथ अनेक खरपतवार उग आते है , जो भूमि में नमी और पोषक तत्व लेते है , जिसके कारण गाजर के पौधों का विकास और बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है अत : इन्हें खेत से निकालना अत्यंत आवश्यक हो जाता है निराई करते समय पक्तियों से आवश्यक पौधे निकाल कर मध्य कि दुरी अधिक कर देनी चाहिए बृद्धि करती हुई जड़ों के समीप हल्की निराई गुड़ाई करते रहना चाहिए. 


कीट नियंत्रण 


गाजर कि फसल पर निम्न कीड़े मकोड़ों का प्रकोप मुख्य रूप से होता है गाजर कि विविल : छ धब्बे वाला पत्ती का टिड्डा.


रोकथाम 


नीम का काढ़ा  तर बतर कर पम्प द्वारा 10 - 15 दिन के अंतराल पर छिडकाव करे.


रोग नियंत्रण  


 


आद्र विगलन 


यह रोग पिथियम अफनिड़रमैटम नामक फफूंदी के कारण होता है इस रोग के कारण बिज के अंकुरित होते ही पौधे संक्रमित हो जाते है - कभी कभी अंकुर भूमि से बाहर नहीं निकाल पाता है और बीज  पूरा ही सड जाता है तने का निचला भाग जो भूमि कि सतह से लगा रहता है , सड जाता है फलस्वरूप पौधे वही से टूट कर गिर जाते है पौधों का अचानक गिर पड़ना और सड जाना आद्र विगलन का प्रमुख कारण है. 


रोकथाम


बीज को बोने से पूर्व गौ मूत्र से उपचारित करें.


हल्की सिंचाई करनी चाहिए.


खुदाई एवं पैदावार


गाजर की जड़ों की खुदाई तब करनी चाहिए जब वे पूरी तरह विकसित हो जाए. खेत में खुदाई के समय पर्याप्त नमी होनी चाहिए. जड़ों की खुदाई फरवरी में करनी चाहिए. बाजार भेजने से पूर्व जड़ों को अच्छी तरह धो लेना चाहिए. इसकी पैदावार क़िस्म पर निर्भर करती है. एसियाटिक क़िस्में अधिक उत्पादन देती है. पूसा क़िस्म की पैदावार लगभग 300-350 क्विंटल प्रति हेक्टेअर, पूसा मेधाली 250-300 क्विंटल 

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