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Thursday, October 21, 2021

राजमा (फ्रेंच बीन) के विभिन्न रूप

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प्रमुख उन्नत किस्में -
पीडीआर 14 - इस किस्म को उदय के नाम से भी जाना जाता है. जिसके दानों का रंग लाल चित्तीदार होता है. यह 125 से 130 दिन में पक जाती है और इससे प्रति हेक्टेयर 30 -35 क्विंटल राजमा पैदा होता है.

मालवीय 137- 110 से 115 में पकने वाली इस किस्म के दानों का रंग लाल होता है. इससे प्रति हेक्टेयर 25 से 30 क्विंटल की पैदावार होती है.

वीएल 63 - यह किस्म 115 से 120 दिनों में पक जाती है. इसके दानों का रंग भूरा चित्तीदार होता है. इससे भी प्रति हेक्टेयर 25 से 30 क्विंटल होती है.

अम्बर - राजमा की यह किस्म 120 से 125 दिनों में पक जाती है. इसके दानों का रंग लाल चित्तीदार होता है. इससे प्रति हेक्टेयर 20 से 25 क्विंटल होती है.

उत्कर्ष- इस किस्म से प्रति हेक्टेयर 20 से 25 क्विंटल की पैदावार होती है. दानों का रंग गहरा चित्तीदार होता है. यह किस्म 130 से 135 दिनों में पक जाती है.

अरुण - इसके दानों का रंग भी गहरा चित्तीदार होता है. यह किस्म 120 से 125 दिनों में पक जाती है. इससे प्रति हेक्टेयर 15 से 18 क्विंटल की पैदावार होती है. Sahar Facebook 

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Wednesday, October 20, 2021

बैंगन के कीड़ों और रोगों का प्रकोप

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  इन  से बैंगन की फसल को बहुत नुकसान होता है। पौधों की सही देखभाल कर हम अपने पौधों को 
इनसे बचा सकते हैं। तो चलिए जानते हैं कुछ प्रमुख रोगों और कीटों के बारे में।
बैंगन के पौधों में लगने वाले कीट

तना एवं फल बेधक : यह कीट पत्तों के साथ बैंगन को भी अंदर से खाते हैं। इससे फसल को बहुत नुकसान होता है। स्किट कपड़ा फ्रॉड पतंगा सफेद रंग का होता है इसके पंखों पर गुलाबी भूरे रंग के निशान होते हैं इसकी सुड़ियां गुलाबी रंग की होती है यह पौधे के कलगी और फलों को छेद डालती है पौधों की कलियां मुरझा कर गिर जाती हैं ग्रसित फलों में सुरंग बनाकर उनको खाती हैं ग्रसित फलों के क्षेत्रों में कीट का मल भरा रहता है जिससे इनकी कीमत घट जाती
बैगन का तना छेदक इस कीट का पतंगा का मक्खन की तरह सफेद होता है सोनिया पौधों को तनु को छेद टी हैं तथा अंदर ही अंदर खाकर हानि पहुंचाती हैं प्रभावित पौधा मुरझा को सूखने लगता है
लाल मकड़ी : लाल मकड़ी पत्तों के नीचे जाल फैलाती है और पत्तों का रस चूसती है। इसके कारण पत्ते लाल रंग के दिखने लगते हैं।

जैसिड : यह कीट भी पत्तों के नीचे लग कर उसका रस चूसते हैं। इससे पत्तियां पीली और पौधे कमजोर हो जाते हैं।

जड़ निमेटोड : इससे पौधों की जड़ों में गांठ बन जाता है। पत्तों का पीला होना और उनका विकास रुक जाना इसका प्रमुख लक्षण है।

एपीलैक्ना बीटल : यह पत्तों को खाने वाला लाल रंग का छोटा कीड़ा होता है। यह बैगन आलू टमाटर दाल लौकी जारी की सब्जियों को क्षति पहुंचाता है इसका प्रवर्तित लगभग गोलाई लिए हुए तथा पीठ उभरा हुआ होता है ऊपरी  पंख पर काले धब्बे होते हैं फिर सिर धड़ में धसा होता है  किसकी गिराड़े शिशु पीले रंग की नाव के आकार की तथा कांटेदार होती है  paud तथा शिशु दोनों पत्तियों के हरे भाग को खाती है तो केवल शिराएं शेष रह जाती हैं माता द्वारा पक्षियों की निकली सदाबहार के आकार के पीले अंडे 1330 के झूठे में दिए जाते हैं  peupa पत्तियों में अथवा तने के समीप भाग में बनता है

बैंगन के पौधों में होने वाले रोग

बिचड़ा गलन (डैम्पिंग ऑफ़) : इस रोग के कारण बीज प्रस्फुटित हो कर मर जाते हैं। इसके अलावा इस रोग से बिचड़ा भी बड़ा हो कर मर जाता है।

छोटे पत्तों का रोग : इस रोग के कारण पत्ते छोटे हो जाते हैं और पौधों में फसल नहीं लगती है।

जीवाणु उखड़ा : इस रोग में पौधों के विकास रुक जाता है। पत्ते पीले होने के बाद पौधे सूख जाते हैं।

मोजैक : यह रोग एक प्रकार के जीवाणु के कारण होता है। इस रोग में पत्तों पर मोजैक जैसा दिखने लगता है।

फोमोप्सिस अंगमारी : इस रोग में पत्तों के साथ जमीन से सटे बैंगन पर धब्बे बनने लगते हैं। इसके साथ ही पत्ते पीले हो कर झड़ने भी लगते हैं।

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Tuesday, October 19, 2021

टिशु कल्चर केला की खेती

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विश्व में केला  उत्पादन में भारत का दूसरा स्थान है उपयुक्त जलवायु तापक्रम 15 से 35 डिग्री सेल्सियस उपयुक्त भूमि जीवांश युक्त दोमट जिस का पीएच मान  6.5 से 8 हो भूमि की तैयारी भूमि की गहरी जुताई करके हेलो चलाकर मिट्टी को भुरभुरी कर पाटा चलाएं गड्ढे का आकार एवं रोपड़ की दूरी गड्ढे का आकार 60 * 60 * 60 सेंटीमीटर रखा जाता है स्तुति दूरी 1.8× 1.8 मीटर पर गड्ढा गड्ढा खोदकर उसे मिट्टी और गोबर की सड़ी खाद से मिश्रण से भर प्रति हेक्टेयर 3086 पौधे लग जाते हैं खाद एवं उर्वरक पतिगड्डा चार से पांच किलोग्राम गोबर की सड़ी हुई खाद डालें प्रति गड्ढा दो सौ ग्राम नीम की खली डालें 10 ग्राम फोरेट
 अथवा 10 ग्राम थीमेट का प्रयोग करें केले हेतु 200 ग्राम नाइट्रोजन 100  ग्राम फास्फोरस 300 ग्राम पोटाश के प्रति पौधे आवश्यकता पड़ती है उन्नत प्रजातियां टिशु कल्चर कल्चर की केले की प्रमुख किस्में है ग्रैंड नैन एवं रॉबस्टा पौधे की तैयारी किसी प्रमाणित संस्थान से टिशू कल्चर पौधे जो नेट हाउस में बड़ी और अनुकूलित की गई हो का प्रयोग करना चाहिए रोपाई का समय 15 जून से 15 जुलाई से 15 अगस्त तक कर सकते हैं रोपाई की विधि 1 पॉइंट 8 * 1.8 मीटर की दूरी पर खुद एवं भरे गड्ढे को ठोको टिशु कल्चर रिपोर्ट की पॉलिथीन काटकर लगाकर खिंचाई करने रोपाई के 1 सप्ताह बाद कार्बेंडाजिम या कैप्टन का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर पौधों की ड्रेसिंग जोड़ों के पास मिट्टी में पानी पानी डालना कर दें रेटिंग के 1 सप्ताह बाद बैक्टीरियल संक्रमण से पौधों को बचाने हेतु स्ट्रिपोसाइक्लिन का 500 मिलीग्राम प्रति लीटर का पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव कर दें सिंचाई रोपाई के 4 दिन बाद हल्की सिंचाई करें फिर आवश्यकता अनुसार 5 से 10 दिन के अंतर पर विचार करें और वर्क प्रयोग अवश्य करें ड्रिप सिंचाई आदर्श विधि है गुड़ाई 8 से 10  की आवश्यकता होती है
 फूल की तू ड़ाई एवं सहारा देना  kele ka gear निकलते समय बाद तथा लकड़ी की कैंची बनाकर पौधों के दोनों तरफ से सहारा देना चाहिए फल टिकाऊ हो जाने पर  केला घर के अगले भाग पर लटकते नर फूल के गुच्छे को काट देना चाहिए
कटाई का विवरण जब फलियों की चारों धारियां तिकोनी न रहकर गोलाई लेकर पीली होने लगे उसमें तेज औजार से केला घर को काट लेना चाहिए प्रति पौधा 25 से 30 किलोग्राम केला प्राप्त होता है

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Thursday, October 14, 2021

पपीते में बोरॉन की कमी से होने वाले फल की विकृति (कुबड़ापन) को कैसे करें प्रबंधित

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डॉ. एस.के .सिंह
प्रोफेसर सह मुख्य वैज्ञानिक( प्लांट पैथोलॉजी)
एसोसिएट डायरेक्टर रीसर्च
डॉ. राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय
पूसा , समस्तीपुर बिहार
sksingh@rpcau.ac.in/sksraupusa@gmail.com

 बोरॉन की कमी के शुरुआती लक्षणों में से एक परिपक्व पत्तियों में हल्का पीला( क्लोरोसिस) होना , जो भंगुर होते हैं और पत्तियों के नीचे की ओर मुड़ने के लिए उत्तरदायी होते हैं।  एक सफेद स्राव "लेटेक्स" मुख्य तने के ऊपरी हिस्से में, पत्ती के डंठल से, और मुख्य नसों और डंठल(पेटीओल्स )के नीचे के दरार से बह सकता है, मृत्यु के बाद बगल से शाखाएं (साइडशूट) निकलती  है, जो अंततः मर जाती है।

 किसी भी फलदार पौधों में बोरॉन की कमी का सबसे पहला संकेत फूलों का गिरना है।  जब फल विकसित होते हैं, तो वे एक सफेद लेटेक्स का स्राव करने की संभावना रखते हैं, बाद में, फल विकृत और ढेलेदार हो जाते हैं। कुबड़ापन( विरूपण) शायद अपूर्ण निषेचन का परिणाम है क्योंकि बीज गुहा में अधिकांश बीज या तो गर्भपात, खराब विकसित या अनुपस्थित होते हैं।  यदि लक्षण तब शुरू होते हैं जब फल बहुत छोटे होते हैं, तो अधिकांश पूर्ण आकार तक नहीं बढ़ते है।

बोरोन की कमी से होने वाले विकृति(कुबड़ापन) को कैसे करें प्रबंधित ?

मिट्टी का परीक्षण करके बोरोन की मात्रा का निर्धारण करें। यदि परीक्षण नही कर पाते है तो प्रति पौधा 8 से 10 ग्राम बेसल डोज के रूप में मिट्टी में  दे ,यह कार्य मिट्टी की जुताई गुड़ाई करते समय भी कर सकते है। बोरोन @6 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर एक एक महीने के अंतर पर पहले महीने से शुरू करके 8वे महीने तक छिड़काव करने से भी  फल में बनने वाले कुबड़ापन को खत्म किया जा सकता है।

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Tuesday, September 14, 2021

केसर: दुनिया की सबसे महंगी खेती के बारे में पूरी जानकारी

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#आवाज_एक_पहल
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केसर दुनिया में उगाए जाने वाले तमाम पौधों में सबसे बेशकीमती माना जाता है। डेढ़ लाख से लेकर तीन लाख प्रति किलोग्राम तक बिकने वाला केसर दरअसल एक तरह का मसाला हैं।इतना महंगा होने के कारण इसे लाल सोना भी कहा जाता है |  

भारत में केसर का मुख्य रूप से कश्मीर में पुलवामा समेत तीन-चार जिलों में ही उत्पादन होता रहा है.देश में सिर्फ 17 टन केसर की पैदावार होती है . दुनियाभर में करीब 300 टन केसर की पैदावार होती है. ईरान दुनियाभर में केसर उत्पादन में नंबर वन है. दुनिया में जितनी केसर पैदा होती है उसका करीब 90 फीसदी ईरान में ही पैदा होता है.

हाल के दिनों में उत्तर प्रदेश और बिहार के भी कई किसानों ने इसका सफल उत्पादन कर कृषि वैज्ञानिकों को हैरत में डाल दिया है.
 पहली नजर में केसर का उत्पादन हर किसी को लुभाता है हालांकि बारीकी से इस पर गौर करें तब आपको समझ में आएगा कि केसर का उत्पादन में भी आमदनी कुछ बाकी फसलों के जैसा ही है।
भले ही  एक किलोग्राम केसर डेढ़ लाख से तीन लाख तक बिकता है लेकिन इसी एक किलोग्राम के केसर को तैयार करने के लिए तकरीबन एक लाख  फूलों की आवश्यकता पड़ती हैं। बड़े सलीके से हर एक फूल से केसर को निकाला जाता है और काफी श्रम के बाद एक किलो केसर तैयार होता है। वहीं जहां तक उत्पादन की बात करें तो एक हेक्टेयर में तकरीबन 2 से 3 किलो तक केसर का उत्पादन संभव हो पाता है।  कुल मिलाकर देखें तो 1 हेक्टेयर से किसान 3 से 5 लाख टर्न ओवर प्राप्त होता है जिसमें खर्चे भी काफी होते हैं।

केसर हमारे शरीर को कई फायदे देती है जिससे की हृदय रोग सम्बंधित सभी तरह की बीमारी दूर हो जाती है. और रक्त शोधक की क्षमता भी बढ़ जाती यही और यह हमारे चेहरे को साफ़ करने के लिए भी उपयोगी होता है जिससे की हमारा चेहरा गोरा हो जाता है और किसी तरह की झाईयाँ या फोड़े फुंसी नहीं होते है .

 केसर की खेती 
केसर की सबसे महत्वपूर्ण चीज़ ये है की आपको ध्यान रखना है की आप जिस भूमि पर केसर की खेती कर रहे है तो वह भूमि चिकनी, बलुई मिट्टी या फिर दोमट मिट्टी की हो जिसमे की पानी की निकासी आराम से हो जाये क्योकि अगर खेती में पानी का जमाव होगा तो फसल बर्बाद होने का भय रहता है क्योकि पानी के जमाव के कारण उसमे corms सड़ जाते है .

 देखभाल करना
खेत को अधिक ज्यादा आवश्यतकता धुप की पड़ती है इसीलिए काम से काम 8 घंटे की धुप कसी भी खेती के लिए आवश्यक है इसीलिए ध्यान रहे की सिंचाई के बाद खेतो में जंगली घास आना शुरू हो जाती है इसीलिए आपको समय-2 पर उस घास को काटते रहना चाहिए |

फूल का समय
जब आपकी खेती शुरुआत की प्रक्रिया पूरी हो जाये तो आपका केसर का पौधा निकलने लग जाता है उसके बाद इसमें फूल लगना भी आरम्भ हो जाता है और कम से कम 1 महीने तक फूल लगा रहता है इसीलिए आपको यह ध्यान देना है की फूल पर किसी तरह के हानिकारण कीट या कीड़े न लगे हो |
कटाई व सुखाई
फसल के पुरे होने के बाद हम केसर के फूल को तोड़ लेते है और उसे धुप में सुखा देते है सुखा देने के बाद उसमे से केसर निकाल लेते है और फिर धुप में सुखा देते है धुप में अच्छी तरह से सूखने के बाद केसर बाजार में बिकने लायक हो जाता है |
©लवकुश
आवाज एक पहल

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Friday, August 20, 2021

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