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Saturday, January 18, 2020

Inter cropping Gnna aur dhaniya in Bindaki aria

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Intercropping

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Wednesday, January 08, 2020

Cane planting

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Cane cultivation

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Monday, May 27, 2019

टमाटर की खेती

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टमाटर ke लिए गर्म और नर्म मौसम की जरूरत है। टमाटर का पौधा ज्यादा ठंड और उच्च नमी को बर्दाश्त नहीं कर पाता है। ज्यादा रोशनी से इसकी रंजकता, रंग और उत्पादकता प्रभावित होता है। विपरीत मौसम की वजह से इसकी खेती बुरी तरह प्रभावित होती है। बीज के विकास, अंकुरण, फूल आना और फल होने के लिए अलग-अलग मौसम की व्यापक विविधता चाहिए। 10 डिग्री सेंटीग्रेड से कम तापमान और 38 डिग्री सेंटीग्रेड से ज्यादा तापमान पौधे के विकास को धीमा कर देते हैं।टमाटर के पौधे का विकास 10 से 30 डिग्री सेंटीग्रेड के बीच होता है लेकिन सबसे अच्छी वृद्धि 21 से 24 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में होता है। 16 डिग्री से नीचे और 27 डिग्री से ऊपर का तापमान को उपयुक्त नहीं माना जाता है। टमाटर का पौधा पाला को बर्दाश्त नहीं कर पाता है और इस फसल को कम से मध्यम स्तर की बारिश की जरूरत होती है। साथ ही ये 21 से 23 डिग्री के मासिक औसत तापमान में अच्छा परिणाम देता है। ज्यादा पानी का दबाव और लंबे वक्त तक सूखापन टमाटर के फल में दरार पैदा कर देता है। अगर फल निकलने के दौरान पौधे पर अच्छी रोशनी पड़ती है तो टमाटर गहरा लाल रंग का हो जाता है।
उन्नत किस्मे :
अरका सौरभ, अरका विकास, अरका आहूति, अरका आशीष, अरका आभा, अरका आलोक, एच एस 101, एच एस 102, एच एस 110, हिसार अरुण, हिसार लालिमा, हिसार ललित, हिसार अनमोल, के एस. 2, नरेन्द्र टोमैटो 1, नरेन्द्र टोमैटो 2, पुसा रेड प्लम, पुसा अर्ली ड्वार्फ, पुसा रुबी, को-1, को 2, को 3, एस- 12, पंजाब छुहारा, पी के एम 1, पुसा रुबी, पैयूर-1, शक्ति, एस एल 120, पुसा गौरव, एस 12, पंत बहार, पंत टी 3, सोलन गोला और अरका मेघाली।
एफ 1हाइब्रिड –
अरका अभिजीत, अरका श्रेष्ठ, अरका विशाल, अरका वरदान, पुसा हाइब्रिड 1, पुसा हाइब्रिड 2, कोथ 1 हाइब्रिड टोमैटो, रश्मि, वैशाली, रुपाली, नवीन, अविनाश 2, एमटीएच 4, सदाबहार, गुलमोहर और सोनाली।
खनिजीय मिट्टी और चिकनी बलुई मिट्टी में टमाटर की खेती अच्छी होती है लेकिन टमाटर के पौधों के लिए सबसे अच्छी बेहतर जल निकासी वाली बलुई मिट्टी होती है। मिट्टी का ऊपरी हिस्सा थोड़ा बलुई और उससे नीचे की मिट्टी अच्छी गुणवत्ता वाली होनी चाहिए। अच्छी फसल के लिए मिट्टी की गहराई 15 से 20 सेमी होनी चाहिए। खारी मिट्टी वाली जमीन में अच्छे से जड़ पकड़ सके और बेहतर ऊपज हो उसके लिए गहरी जुताई जरूरी होती है।
टमाटर सामान्य तौर पर पीएच यानी अम्लीयता और क्षारीयता की बड़ी मात्रा को सहने वाली फसल है। इसकी खेती के लिए 5.5 से 6.8 का पीएच सामान्य है। पर्याप्त पोषक तत्वों के साथ अम्लीय मिट्टी में टमाटर की फसल अच्छा होती है। टमाटर सामान्य तौर पर 5.5 पीएच वाली अम्लीय मिट्टी को सहने की क्षमता रखता है। नमक की मात्रा से रहित, हवा और पानी की पर्याप्त मात्रा को वहन करने वाली मिट्टी टमाटर की खेती के लिए उपयुक्त होती है। ज्यादा आर्द्रता और पोषक तत्वों से रहित उच्च कार्बनिक तत्वों वाली मिट्टी इसकी खेती के लिए अच्छी नहीं होती है। वहीं, अगर खनिज पदार्थ से युक्त मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ मिल जाए तो अच्छा परिणाम देती है।
टमाटर खेती के लिए बीज का चयन –
बीज उत्पादन के बाद खराब और टूटे बीज को छांट लिया जाता है। बुआई वाली बीज हर तरह से उत्तम किस्म की होनी चाहिए। आकार में एक समान, मजबूत और जल्द अंकुरन वाली बीज को बुआई के लिए चुना जाता है। विपरीत मौसम को भी सहनेवाली एफ 1 जेनरेशन वाली हाईब्रीड बीज जल्दी और अच्छी फसल देती है।
बुआई का वक्त –
आमतौर टमाटर किसी भी मौसम में होनेवाली फसल है |
देश के उत्तरी मैदानी भाग में इसकी तीन फसल होती है लेकिन बेहद ठंडे इलाके में रबी फसल इतनी अच्छी नहीं होती है। जुलाई में खरीफ फसल,  अक्टूबर-नवंबर में रबी फसल और फरवरी में जायद फसल उपजाई जाती है।
दक्षिणी मैदानी इलाकों में जहां पाला का खतरा नहीं होता है वहां पहली बुआई दिसंबर-जनवरी में की जाती है। दूसरी बुआई जून-जुलाई में और तीसरी सितंबर-अक्टूबर में की जाती है और इसमे सिंचाई की सुविधा का ध्यान रखना बेहद जरूरी है।
टमाटर की बीज और रोपाई  –
आमतौर पर टमाटर की खेती रीज यानी ऊंचे टीले और मैदानी भाग में जुताई के बाद की जाती है। बुआई के दौरान खुले मौसम और सिंचाई की वजह से पौधा कड़ा हो जाता है। प्रति हेक्टेयर बीज दर 400 से 500 ग्राम होता है। बीज के साथ पैदा होने वाले रोग से बचाव के लिए 3 ग्राम प्रति किलो थीरम की मात्रा जरूरी होता है। बीज के इलाज में 25 और 50 पीपीएम पर बी. नेप्थॉक्सिएटिक एसिड (बीएनओए), 5 से 20 पीपीएम पर गिबरलिक एसिड (जीए3) और 10 से 20 पीपीएम पर क्लोरोफेनॉक्सी एसेटिक बेहद प्रभावकारी होता है और टमाटर उत्पादन में बेहतर परिणाम देता है।
शरद ऋतु की फसल के लिए बुआई जून-जुलाई में की जाती है और वसंत ऋुतु की फसल के लिए बुआई नवंबर माह में की जाती है। पहाड़ी इलाके में बुआई मार्च-अप्रैल में की जाती है। शरद ऋतु के लिए फसलों के बीच अंतर 75×60 सेमी और वसंत ऋतु के लिए अंतर 75×45 सेमी रखना आदर्श माना जाता है।
टमाटर की खेती के लिए खाद –
खेती के लिए जमीन की तैयारी के वक्त प्रति 20-25 टन प्रति हेक्टेयर अच्छी फार्म की खाद या कम्पोस्ट को मिट्टी में सही तरह से मिलाना चाहिए। 75:40:25 किलो एन:पी 2ओ 5 रेशियो के2ओ प्रति हेक्टेयर खाद दिया जाना चाहिए। पौधारोपण के पहले नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस की पूरी मात्रा और पोटास की आधी मात्रा दी जानी चाहिए। पौधारोपण के 20 से 30 दिनों के बाद एक चौथाई नाइट्रोजन और पोटाश की आधी मात्रा दी जानी चाहिए। बाकी बची मात्रा पौधारोपण के दो माह बाद दी जानी चाहिए।

टमाटर की रोपाई –
  • टमाटर का पौधारोपन एक छोटे से समतल जमीन या फिर कम खुदाई कर की जानी चाहिए, साथ इसमे सिंचाई की उपलब्धता का भी ध्यान रखना होगा।
  • आमतौर पर भारी मिट्टी वाली जगह पर पौधारोपन रिज यानी ऊंची पहाड़ी इलाके में की जाती है। खासकर बारिश के दौरान ऐसी जगह पर ज्यादा अच्छी फसल होती है।
  • अनिश्चित प्रकार या हाइब्रिड की स्थिति में दो मीटर बांस के डंडे के सहारे पौधारोपन किया जाता है। वहीं, बड़े रिज एरिया में 90 सेमी चौड़ा और 15 सेमी ऊंचाई रखी जाती है।
  • यहां हल से खींचे गए खांचे या लाइन में लगाए गए पौधे के बीच की दूरी 30 सेमी रखी जाती है।
पौधों के बीच कितनी दूरी हो-
शीत ऋतु में पौधों के बीच 75 गुना 60 सेमी की दूरी रखी जाती है। वहीं, ग्रीष्म ऋतु में ये अंतराल 75 गुना 45 सेमी होता है।
नर्सरी की तैयारी और देखभाल  टमाटर की बुआई के लिए आदर्श बीज की क्यारी 60 सेमी चौड़ी, 6 से 6 सेमी लंबी और 20 से 25 सेमी ऊंची होनी चाहिए। क्यारी से ढेला और खूंटी को अच्छी तरह से साफ कर देना चाहिए। अच्छी तरह से छाना हुआ फार्म यार्ड खाद और बालू क्यारी में डालना चाहिए। उसके बाद उसकी अच्छी तरह से जुताई करें। उसके बाद फाइटोलोन या डिथेन एम-45 को प्रति लीटर पानी में 2 से ढाई ग्राम मिलाकर क्यारी में डाल दें| उसके बाद क्यारी के समानांतर 10 से 15 सेमी की लाइन खीचें। उसके बाद बीज उस लाइन में लगा दें, हल्का दबायें, साफ बालू से ढंक दें और अंत में फूस से ढंक दें। रोजकेन से सिंचाई करें। बीज की क्यारी को प्रति दिन दो बार तब तक सींचते रहें जब तक अंकुरण न हो जाए। बीज के अंकुरण के बाद फूस को हटा दें। जब चार-पांच पत्ते आ जाए तो थोड़ा थिमेट का इस्तेमाल करें। दो से ढाई एमएल प्रति लीटर पानी में मेटासिसटोक्स या थियोडेन और डिथेन एम-45 के साथ अंकुरित बीज का छिड़काव करें।
खर-तवार का नियंत्रण
पौधारोपन के चार सप्ताह के दौरान हल्की निराई-गुड़ाई जरूरी होता है ताकि खेत से खर-पतवार को निकाला जा सके। प्रत्येक सिंचाई के बाद जब मिट्टी सूखती है तब खुरपी की मदद से मिट्टी को ढीला किया जाता है। इस दौरान जितना भी घास-फूस होता है उसे ठीक से निकाल देना चाहिए।
फूस के साथ आधी सड़ी हुई घास, काली पॉलीथिन और दूसरे तत्व नमी बनाए रखने, खर-पतवार नियंत्रण और बीमारियों से बचाव में सहायक होते हैं। sabhar jagarn.com

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Monday, November 12, 2018

Fish farming

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जाड़े के मौसम में मछलियों में होने वाले बीमारीयों से बचाव कैसे करें।

चूँकि मछली एक जलीय जीव है, अतएव उसके जीवन पर आस-पास के वातावरण की बदलती परिस्थतियां बहुत असरदायक हो सकती हैं। मछली के आस-पास का पर्यावरण उसके अनुकूल रहना अत्यंत आवशयक है। जाड़े के दिनों में तालाब की परिस्थति भिन्न हो जाती है तथा तापमान कम होने के कारण मछलियाँ तालाब की तली में ज्यादा समय व्यतीत करती हैं । अत: ऐसी स्थिति में ‘ऐपिजुएटिक अल्सरेटिव सिन्ड्रोम’ (EUS) नामक बीमारी होने की संभावना काफी ज्यादा बढ़ जाती है । इसे लाल चक्ते वाली बीमारी के नाम से भी जाना जाता है । यह भारतीय मेजर कॉर्प के साथ-साथ जंगली अपतृण मछलियों की भी व्यापक रूप से प्रभावित करती है। समय पर उपचार नहीं करने पर कुछ ही दिनों में पूरे पोखर की मछलियाँ संक्रमित हो जाती हैं और बड़े पैमाने पर मछलियाँ तुरंत मरने लगती हैं ।

बीमारी का इतिहास।

इस रोग का विश्लेषण करने पर यह पाया गया कि प्रारंभिक अवस्था में यह रोग फफूंदी तथा बाद में जीवाणु द्वारा फैलता है । विश्व में सर्वप्रथम यह बीमारी 1988 में बांग्लादेश में पायी गयी थी, वहाँ से भारतवर्ष में आयी ।
इस बीमारी का प्रकोप 15 दिसम्बर से जनवरी के मध्य तक ज्यादा देखा जाता है जब तापमान काफी कम हो जाता है । सबसे पहले तालाब में रहने वाली जंगली मछलियों यथा पोठिया, गरई, मांगुर, गईची आदि में यह बीमारी प्रकट होती है । अतएव जैसे ही इन मछलियों में यह बीमारी नजर आने लगे तो मत्स्यपालकों को सावधान हो जाना चाहिए । उसी समय इसकी रोकथाम कर देने से तालाब की अन्य योग्य मछलियों में इस बीमारी का फैलाव नहीं होता है ।

मछलियों को बीमारी से बचाने के उपाय।

कई राज्यों में सामान्य रूप से इस बीमारी के नहीं दिखने के बावजूद 15 दिसम्बर तक तालाब में 200 कि०ग्रा०/ एकड़ भाखरा चूना का प्रयोग कर देने से मछलियों में यह बीमारी नहीं होती है और यदि होती भी है तो इसका प्रभाव कम होता है । जनवरी के बाद वातावरण का तापमान बढ़ने पर यह स्वत: ठीक हो जाती है ।
केन्द्रीय मीठाजल जीवपालन संस्था (सिफा), भुवनेश्वर द्वारा इस रोग के उपचार हेतु एक औषधि तैयार की है जिसका व्यापारिक नाम सीफैक्स (cifax) है । एक लीटर सीफैक्स एक हेक्टेयर जलक्षेत्र के लिए पर्याप्त होता है । इसे पानी में घोल कर तालाब में छिड़काव किया जाता है । गंभीर स्थिति में प्रत्येक सात दिनों में एक बार इस दवा का छिड़काव करने से काफी हद तक इस बीमारी पर काबू पाया जा सकता है ।
घरेलू उपचार में चूना के साथ हल्दी मिलाने पर अल्सर घाव जल्दी ठीक होता है । इसके लिए 40 कि० ग्रा० चूना तथा 4 कि०ग्रा० हल्दी प्रति एकड़ की दर से मिश्रण का प्रयोग किया जाता है । मछलियों को सात दिनों तक 100 मि०ग्रा० टेरामाइसिन या सल्फाडाइजिन नामक दवा प्रति कि०ग्रा० पूरक आहार में मिला कर मछलियों को खिलाने से भी अच्छा परिणाम प्राप्त होता है । Sabhar jagoo kisaan whats up group

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Gav conection

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Gaon Connectionमचान विधि से सब्जियों खेती कर कमाएं मुनाफा


गर्मियों में अगेती किस्म की बेल वाली सब्जियों को मचान विधि से लगाकर किसान अच्छी उपज पा सकते हैं। इनकी नर्सरी तैयार करके इनकी खेती की जा सकती है। पहले इन सब्जियों की पौध तैयार की जाती है और फिर मुख्य खेत में जड़ों को बिना नुकसान पहुंचाये रोपण किया जाता है। इन सब्जियों की पौध तैयार करने 

मचान में लौकी, खीरा, करेला जैसी बेल वाली फसलों की खेती की जा सकती है। मचान विधि से खेती करने से कई लाभ हैं। मचान में खेत में बांस या तार का जाल बनाकर सब्जियों की बेल को जमीन से ऊपर पहुंचाया जाता है। मचान का प्रयोग सब्जी उत्पादक बेल वाली सब्जियों को उगाने में करते हैं। मचान के माध्यम से किसान 90 प्रतिशत फसल को खराब होने से बचाया जा सकता है।
करेला।
मचान की खेती के रूप में सब्जी उत्पादक करेला, लौकी, खीरा, सेम जैसी फसलों की खेती की जा सकती है। बरसात के मौसम में मचान की खेती फल को खराब होने से बचाती है। फसल में यदि कोई रोग लगता है तो तो मचान के माध्यम से दवा छिड़कने में भी आसानी होती है।

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उद्यान विभाग के शाक सब्जी विभाग के संयुक्त निदेशक डॉ. एमपी यादव बताते हैं, ''मचान विधि से खेती करने से किसानों को बहुत से फायदे होते हैं, किसान अपने जि़ले के उद्यान अधिकारी से जायद मौसम की लौकी, खीरा, करेला, तरबूज जैसी बेल वाली सब्जियों की उन्नतशील बीजों को खरीद सकते हैं।
बाराबंकी जि़ले के मसौली ब्लॉक के मेढ्यिा गाँव के किसान रिंकू वर्मा पिछले कई साल से मचान विधि से ही सब्जियों की खेती करते आ रहे हैं। रिंकू वर्मा कहते हैं, ''पहले मैं जमीन पर ही सब्जी की फसलें बोता था, लेकिन जब से मचान विधि से खेती कर रहा हूं, इससे ज्यादा लाभ हो रहा है।''

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खेत की तैयारी

खेत की अन्तिम जुताई के समय 200-500 कुन्तल सड़ी-गली गोबर की खाद मिला देना चाहिए। सामान्यत: अच्छी उपज लेने के लिए प्रति हेक्टेयर 240 किग्रा यूरिया, 500 किग्रा सिगंल सुपर फास्फेट एवं 125 किग्रा म्यूरेट ऑफ पोटास की आवश्यकता पड़ती है। इसमे सिंगल सुपर फास्फेट एवं पोटास की पूरी मात्रा और युरिया की आधी मात्रा नाली बनाते समय कतार में डालते है।
लौकी।
यूरिया की चौथाई मात्रा रोपाई के 20-25 दिन बाद देकर मिट्टी चढ़ा देते है तथा चौथाई मात्रा 40 दिन बाद टापड्रेसिंग से देना चाहिए। लेकिन जब पौधों को गढढ़े में रोपते है तो प्रत्येक गढढ़े में 30.40 ग्राम यूरियाए 80.100 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट व 40.50 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटास देकर रोपाई करते है।

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पौधों की खेत में रोपाई

पौधों को मिट्टी सहित निकाल कर में शाम के समय रोपाई कर देते है। रोपाई के तुरन्त बाद पौधों की हल्की सिंचाई अवश्य कर देनी चाहिए। रोपण से 4-6 दिन पहले सिंचाई रोक कर पौधों का कठोरीकरण करना चाहिए। रोपाई के 10-15 दिन बाद हाथ से निराई करके खरपतवार साफ कर देना चाहिए और समय-समय पर निराई गुड़ाई करते रहना चाहिए। पहली गुड़ाई के बाद जड़ो के आस पास हल्की मिट्टी चढ़ानी चाहिए।

मचान बनाने की विधि

इन सब्जियों में सहारा देना अति आवश्यक होता है सहारा देने के लिए लोहे की एंगल या बांस के खम्भे से मचान बनाते है। खम्भों के ऊपरी सिरे पर तार बांध कर पौधों को मचान पर चढ़ाया जाता है। सहारा देने के लिए दो खम्भो या एंगल के बीच की दूरी दो मीटर रखते हैं लेकिन ऊंचाई फसल के अनुसार अलग-अलग होती है सामान्यता करेला और खीरा के लिए चार फीट लेकिन लौकी आदि के लिए पांच फीट रखते है ।
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कीड़ों व रोगों से बचाव कीड़ों व रोगों से बचाव

इन सब्जियों में कई प्रकार के कीड़े व रोग नुकसान पहुचाते है। इनमें मुख्यत:लाल कीड़ा, फलमक्खी, डाउनी मिल्डयू मुख्य है।लाल कीड़ा, जो फसल को शुरु की अवस्था में नुकसान पहुचाता है, को नष्ट करने के लिए इन फसलो में सुबह के समय मैलाथियान नामक दवा का दो ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बना कर पौधों एवं पौधों के आस पास की मिट्टी पर छिड़काव करना चाहिए।
चैम्पा तथा फलमक्खी से बचाव के लिए एण्डोसल्फान दो मिली लीटर दवा प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बना कर पौधों पर छिड़काव करें। चूर्णिल आसिता रोग को नियंत्रित करने के लिए कैराथेन या सल्फर नामक दवा 1.2 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी का छिड़काव करना चाहिए। रोमिल आसिता के नियंत्रण हेतु डायथेन एम-45, 1-5 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी का छिड़काव करना चाहिए। दुसरा छिड़काव 15 दिन के अन्तर पर करना चाहिए।

उपज

इस विधि द्वारा मैदानी भागो में इन सब्जियो की खेती लगभग एक महीने से लेकर डेढ़ महीने तक अगेती की जा सकती है तथा उपज एवं आमदनी भी अधिक प्राप्त की जा सकती है। इस प्रकार खेती करने से टिण्डा की 100-150 कुंतल लौकी की 450-500 कुंतल तरबूज की 300-400 कुंतल, खीरा, करेला और तोरई की 250-300 कुंतल उपज प्रति हेक्टेयर की जा सकती है।Sambhar gaavconection.com


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